संस्कृति से जुड़ा प्राचीन वाद्य : मृदंग
पांच वर्ष पूर्व, दस दिन की उड़ीसा घुमक्कड़ी के दौरान संस्कृति समृद्ध उड़ीसा के सादगी परिपूर्ण जन-जीवन, ऐतिहासिक व धार्मिक स्थलों से काफी करीब से रूबरू होने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था.कल दीपावली के अवसर पर, कॉलोनी में उड़ीसा निवासी, बहुत पुराने मित्र कपिल राय जी, मृदंग गले में डालकर कर गीत-संगीत का माहौल बनाने को ही थे कि मैं उनके घर पहुँच गया. मृदंग की सज्जा देखकर आकर्षित हुआ !! तो उत्सुकता में कपिल जी से मृदंग लेकर अपने गले में डाल कर अनाड़ी स्टाइल में थाप देने को ही था कि कपिल जी ने रोका !
“ भाई साहब ! ऐसे नहीं !! मृदंग पर थाप देने के कुछ नियम हैं, अकेले बाएं हाथ से थाप देने पर, ब्रह्म हत्या और अकेले दायें हाथ से थाप देने पर गौ हत्या मानी जाती है ! “ और दोनों हथेलियों से एक साथ मृदंग पर एक साथ थाप देते हुए मस्त अंदाज में बोले, “दोनों हाथों से एक साथ थाप देकर ...ऐसे बजाइए !!
कपिल जी की बात सुनकर सोचने लगा ! ये वर्जनाएं संभवत: संगीत में फूहड़ता रोकने और संगीत की मर्यादा व शालीनता बनाये रखने के उद्देश्य से धर्म से जोड़कर लगायी गयी होंगी !!
मृदंग, ढोलक की तरह का ही थाप वाद्य है जो दक्षिण भारत में प्राचीन काल से प्रचलित है लकड़ी के खोल पर चमड़े की थाप से मढ़े जाने वाले मृदंग के एक सिरे की गोलाई दूसरी सिरे से कम होती है. चैतन्य महाप्रभु ने दोनों शिष्यों के साथ मिलकर मृदंग, झांझ, मजीरे आदि की ताल पर भक्ति की एक नयी धारा बहायी.
अमीर खुसरो ने मृदंग को काटकर ही तबला बनाया था.. जिसका आधुनिक संगीत में वाद्य के रूप में हर जगह उपयोग किया जाता है.
हर विधा के कुछ नियम होते हैं और एक अनुशासन होता है. उनको अंतर्मन से अनुसरित करने पर ही साधना की सफलता सुनिश्चित है तत्पश्चात ही सम्बंधित विधा में नए आयाम स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त हो पाता है..