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Friday 29 April 2016

नमस्ते



नमस्ते

             नमस्ते या नमस्कार मुख्यतः हिन्दुओं और भारतीयों द्वारा एक दूसरे से मिलने पर अभिवादन और विनम्रता प्रदर्शित करने हेतु प्रयुक्त शब्द है। इस भाव का अर्थ है की सभी मनुष्यों के हृदय में एक दैवीय चेतना और प्रकाश है जो अनाहत चक्र (हृदय चक्र) में स्थित है। यह शब्द संस्कृत के नमस शब्द से निकला है।
           इस भावमुद्रा का अर्थ है एक आत्मा का दूसरी आत्मा से आभार प्रकट करना।  नमस्ते के अतिरिक्त नमस्कार और प्रणाम शब्द का प्रयोग करते हैं।
           संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से इसकी उत्पत्ति इस प्रकार है- नमस्ते= नमः+ते । अर्थात् तुम्हारे लिए प्रणाम। संस्कृत नमस्ते का शाब्दिक अर्थ है- तुम्हारे लिए प्रणाम। इसे "तुमको प्रणाम" या "तुम्हें प्रणाम" भी कहा जा सकता है। परन्तु इसका संस्कृत रूप हमेशा "तुम्हारे लिए नमः" ही रहता है,
            नमस्ते करने के लिए, दोनो हाथों को अनाहत चक  (हाथ ह्रदय के पास) पर रखा जाता है, आँखें बंद की जाती हैं, और सिर को झुकाया जाता है। इसके अलावा हाथों को स्वाधिष्ठान चक्र (भोहों के बीच का चक्र) पर रखकर सिर झुकाकर और हाथों को हृदय के पास लाकर भी नमस्ते किया जा सकता है। दूसरी विधि गहरे आदर का सूचक है।
 नमस्ते का भावार्थ....
                 नमस्कार का अर्थ है की सभी मनुष्यों के हृदय में एक दैवीय चेतना और प्रकाश है जो अनाहत चक्र (हृदय चक्र) में स्थित है। यह शब्द संस्कृत के नमस शब्द से निकला है। इस भावमुद्रा का अर्थ है एक आत्मा का दूसरी आत्मा से आभार प्रकट करना। नमस्ते के अतिरिक्त नमस्कार और प्रणाम शब्द का प्रयोग करते हैं।।
              हाथों को हृदय चक्र पर लाकर दैवीय प्रेम का बहाव होता है। सिर को झुकाने औरआँखें बंद करने का अर्थ है अपने आप को हृदय में विराजमान प्रभु को अपने आप को सौंप देना। गहरे ध्यान में डूबने के लिए भी स्वयं को नमस्ते किया जा सकता है; जब यह किसी और के साथ किया जाए तो यह एक सुंदर और तीव्र ध्यान होता है।

          एक शिक्षक और विद्यार्थी जब एक दूसरे को नमस्ते कहते हैं तो दो व्यक्ति ऊर्जात्मक रूप से वे समय और स्थान से रहित एक जुड़ाव बिन्दु पर एक दूसरे के निकट आते हैं और अहं की भावना से मुक्त होते हैं। यदि यह हृदय की गहरी भावना से मन को समर्पित करके किया जाए तो दो आत्माओं के मध्य एक आत्मीय संबंध बनता है। आदर्श रूप से, नमस्ते कक्षा के आरंभ और समाप्ति पर किया जाना चाहिए। आमतौर पर यह कक्षा की समाप्ति पर किया जाता है क्योंकि तब मन कम सक्रिय होता है और कमरे की ऊर्जा अधिक शांत होती है। शिक्षक नमस्ते कहकर अपने छात्रों और अपने शिक्षकों का अभिवादन करता है और अपने छात्रों का स्वागत करता है कि वे भी उतने ही ज्ञानवान बनें और सत्य का प्रवाह हो।
सौजन्य : विकिपीडिया


 

विडंबना कहिये या कटु सत्य !



              विडंबना कहिये या कटु सत्य, कि हम हर जगह बहुत बड़ी-बड़ी बातें तो अवश्य करते हैं लेकिन जब उन्हीं परिस्थितियों से हमारा वास्ता पड़ता है तो हम मौन साध लेते हैं. महत्वाकांक्षी लोग मानवीय कुंठाओं का क्षेत्र वाद,जातिवाद, धर्मवाद को माध्यम बनाकर भरपूर दोहन करते हैं. 
         क्षणिक स्वार्थों के     कारण हम अपना "स्व" तक नही विचार पाते. इन स्वार्थी तत्वों की मंशा का अहसास तब होता है जब वे हमारी भावनाओं का दोहन अपनी स्वार्थ सिद्धि में परिणित कर चुके होते हैं..उस वक्त हम स्वयं को ठगा सा महसूस करते हैं, साथ ही हम उस वक्त स्वयं को विरोध करने की स्थिति में भी नहीं पाते हैं .. स्वतंत्र व निष्पक्ष चिंतन इस तरह के लोगों पर लगाम लगाने का एक मात्र साधन है.
           राजनीतिक दलों और समाज में इस तरह के अधिसंख्यक तत्व उपस्थित हैं जिनसे स्वयं को बचा पाना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है.


साष्टांग दंडवत प्रणाम



साष्टांग दंडवत प्रणाम

                  साष्टांग दंडवत प्रणाम अभिवादन की चरम स्थिति है. दंड (बांस) की तरह जमीन पर सीधे लेटकर किये जाने वाले अभिवादन को साष्टांग दंडवत कहते हैं. इसमें शरीर के छ: अंगों ( महा मर्म या अति संवेदनशील अंग) का स्पर्श धरती से होता है. एक साथ इन अंगों का धरती पर स्पर्श होना पूर्ण समर्पण,श्रद्धा और एकाग्रता दर्शाता है
               दंडवत प्रणाम की मुद्रा में व्यक्ति सभी इंद्रियों अपने श्रद्धेय को समर्पित होता है. श्रद्धेय दंडवत मुद्रा में देखता है, तो स्वत: ही उसके मनोविकार या किसी भी प्रकार की दूषित मानसिकता धुल जाती है ! और उसके पास रह जाता है, केवल त्याग, बलिदान या अर्पण.
             दंडवत प्रणाम की मुद्रा में हम निर्विकार,निर्बाध, निर्विचार केवल श्रद्धेय की ऊर्जा शक्ति का स्वयं में आरोहण या प्रवेश करा रहे होते हैं ! और इसमें कोई संदेह नहीं, कि दंडवत प्रणाम करने के उपरांत व्यक्ति कई गुणी शक्ति और ऊर्जा से परिपूर्ण होकर उठता है.
            कई मंदिरों, तीर्थो या उपासना स्थलों पर दंडवत परिक्रमा करने की परंपराएँ बनाई गई हैं, उनके पीछे भी यही वैज्ञानिकता है, कि व्यक्ति निर्विकार भाव से वहां व्याप्त सकारात्मक विद्युत-चुबंकीय शक्ति को तेजी से आत्म-सात् करे, और उसमें संघर्ष करने, सहने तथा उत्साहित होकर कार्य करने की क्षमता विकसित हो जाए .
             यदि कोई शिष्य अपने गुरू के समक्ष चरण स्पर्श या दंडवत प्रणाम नहीं करता है, तो उसमें से विवेक शक्ति का ह्रास होने लगता है.अर्थात् जिनमें देने की शक्ति होती है, उनमें अपने संकल्प के बल पर लेने की शक्ति भी स्वत: विद्यमान रहती है, जो अनायास है, प्रतिकूल कार्य करने को विवश हो जाती है
गुरू चरण सेवा, गुरू चरण स्पर्श, गुरू चरण पूजा, गुरू चरण वंदन, गुरू चरण स्तवन आदि अलग विषय हैं, जिनमें गुरू की रहस्यात्मक शक्तियों का शिष्य में हस्तांतरण ही है.
             शास्त्रों के अनुसार दण्डवत प्रणाम के समय चादर कुरता कमीज बनियान आदि को उतार देना चाहिए.महिलाओं द्वारा लेटकर प्रणाम नहीं करना चाहिए.
             आजकल के भाग दौड़ भरे जीवन मे साष्टांग दंडवत प्रणाम से अभिवादन करना सरल नही, साथ ही इस तरह के महापुरुष मिलना भी दुर्लभ ही है लेकिन माता -पिता, गुरु और देवता सदैव साष्टांग दंडवत प्रणाम के पात्र रहे हैं.


Wednesday 27 April 2016

खेल-खेल में ...



छोटी लेकिन महत्वपूर्ण बातें

         विभागीय आदेशों के तहत हर माह स्कूल में आपदा प्रबंधन के अंतर्गत कृत्रिम परिस्थितियाँ उत्पन्न करके बच्चों को भूकंप आने या आग लगने जैसी आपदा के समय बरती जाने वाली सावधानियां व सुरक्षा उपायों के प्रति जागरूक किया जाता है.
       कुछ दशक पहले मैंने किसी से सज्जन से एक आवासीय स्कूल में दीर्घ शीतकालीन अवकाश होने पर असावधानी के कारण विद्यालय के आवासीय कक्ष में छात्र के बंद रह जाने और उसके बाद जब तक वह जीवित रहा किस प्रकार उसने जीवन जिया, छात्र द्वारा स्वयं लिखे मार्मिक वृत्तांत के सम्बन्ध में सुना था. हालांकि मैंने स्वयं ऐसा कोई वृतांत नहीं पढ़ा इसलिए इस वृत्तांत को प्रमाणिक रूप से सत्य कह सकने में असमर्थ हूँ !
        फिर भी सोचता हूँ कि इस तरह की परिस्थितियाँ विभिन्न स्वरूपों में छोटे बच्चों के सामने आती हैं और आ सकती हैं. मसलन, घर या स्कूल के कमरे में या टॉयलेट में बच्चे द्वारा खेल-खेल में कुण्डी/ चटकनी बंद करने के बाद पुन: खोल न सकने की स्थिति में ऐसी स्थिति बन सकती है !!
       आज सोचा छुट्टी से कुछ समय पहले बच्चों को इस सम्बन्ध में अभ्यास करवाया जाय ! क्योंकि विद्यालय केवल किताबी ज्ञान प्रदान करने का संस्थान नहीं !! बल्कि व्यक्ति के सर्वांगीण विकास का मंदिर है !!
       स्वयं की उपस्थिति में कृत्रिम परिस्थितियाँ उत्पन्न करके, अभ्यास हेतु खासकर उन बच्चों को चुना जो अंतर्मुखी, संकोची, शारीरिक रूप से कमजोर व कार्य करने में स्वयं पहल नहीं करते हैं. देखा गया है ऐसी स्थिति में बच्चे इतना घबरा जाते हैं कि उपजे सदमे से जीवन भर के लिए उनके मष्तिष्क में घबराहट घर कर जाती है ! अत: उद्देश्य था... ऐसी विषम परिस्थितियों में बौखलाए बिना धैर्य व हिम्मत बनाये रखकर रखकर, बाहरी सहायता उपलब्ध होने तक उपलब्ध साधनों का समुचित प्रयोग करके बाहरी सहायता उपलब्ध होने पर सहयोग करना. इस प्रकार बच्चों में विषम परिस्थितियों से निपटने हेतु स्वयं समाधान तलाशने का कौशल विकसित करना ...
        चित्र सं-1 में ईशा बेंच लगाकर चटकनी तक पहुंची, हाथों से चटकनी के न खुलने पर उपलब्ध डस्टर से चटकनी पर प्रहार करने के बाद दरवाजा खोलने में कामयाब रही. चित्र सं. 2, 3,4,5,6 में कद में कुछ छोटी व शारीरिक रूप से कमजोर शालू ने पहले बेंच लगाई. उसने भी हाथ से न खुलने पर चटकनी पर डस्टर से प्रहार किये लेकिन चटकनी नहीं खुली ! फिर उसने कक्षा में उपलब्ध कुर्सी को बेंच पर रखा और उस पर चढ़कर दरवाजे के ऊपर बनी छोटी खिड़की से बाहर आवाज लगाकर सहायता प्राप्त करने की कोशिश की !
         विषम परिस्थितियाँ का स्वरुप व उपलब्ध साधन भी अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन अभ्यास के पीछे मुख्य उद्देश्य, ऐसी परिस्थितियों में बच्चे में आत्म विश्वास व साहस बनाये रखना था. जिससे वो बाहरी सहायता उपलब्ध होने तक धैर्य व साहस बनाये रख कर प्रयास जारी रखे और सहायता उपलब्ध होने पर प्रक्रिया में सहयोग करे..
          आपके घर में यदि छोटे बच्चे हैं तो आप भी स्वयं की उपस्थिति में खेल-खेल में इस तरह का अभ्यास करवाकर बच्चों का हौसला बढा सकते हैं .. और उनमें विषम परिस्थितियों के समय स्वयं समाधान तलाशने का कौशल विकसित कर सकते हैं .


Saturday 23 April 2016

निल बट्टे सन्नाटा !



निल बट्टे सन्नाटा !

 दिल को छूती शैक्षणिक फिल्म : निल बट्टे सन्नाटा !

          मैं बॉलीवुड की ग्लैमर से लवरेज और जमीनी हकीकत से दूर फिल्मों को देखने का शौक़ीन बिलकुल नहीं !! लेकिन शिक्षक होने के नाते आपको सपरिवार इस टैक्स फ्री फिल्म " निल बट्टे सन्नाटा" को देखने की सलाह अवश्य देना चाहूँगा ! आगरा की पृष्ठभूमि में बनी पहली बार फिल्म निर्देशक के रूप में अश्विनी अय्यर तिवारी द्वारा निर्देशित फिल्म के हर किरदार में आप स्वयं को जीवंत अनुभव करेंगे. हालांकि फिल्म में बॉलीवुड के सुपर स्टार अभिनेता/अभिनेत्री की चमक-दमक न होने से अभी दर्शक कम आ रहे हैं लेकिन व्यक्तिगत रूप से मुझे यह फिल्म कुछ मायनों में आमिर खान की लोकप्रिय फिल्म " तारे जमीं पर " से श्रेष्ठ महसूस हुई
         बॉलीवुड फिल्म के ग्लैमर, लकधक और जमीनी हकीकत से दूर फिल्मों से इतर सुपर स्टार अभिनेताओं/अभिनेत्रियों की अनुपस्थिति में इस फिल्म में निम्न आय वर्ग से जुडी विपरीत पारिवारिक व सामजिक परिस्थितियों से जूझती पृष्ठभूमि में पेशे से बाई, माँ, चंदा सहाय (स्वरा भास्कर ) का अपनी बेटी अपेक्षा सहाय (रिया शुक्ला) के भविष्य को लेकर प्यार व त्याग को बहुत संजीदगी व सहजता से प्रदर्शित किया गया है.
        मुख्य भूमिका में, माँ (स्वरा भास्कर ) , बेटी (रिया शुक्ला), मालकिन (रत्ना पाठक शाह) व प्रधानाचार्य ( पंकज त्रिपाठी) ने अपने किरदार को बहुत सहजता से निभाया है.
        100 मिनट में जमीनी हकीकत से रूबरू करवाती जार प्रोडक्शन बैनर तले बनी इस फिल्म में आपसी झगड़ों, स्कूल में बाल सुलभ व्यवहार और एक कामवाली बाई की निजी जिंदगी की झलकियों व घर से लेकर स्कूल और गली-कूचे के दृश्यों को अश्विनी तिवारी ने काफी अच्छे तरह से फिल्माया है और रोजमर्रा की जिंदगी के कई पलों को बखूबी पर्दे पर उतारा है। .बॉलीवुड फिल्मों की ट्विस्ट भरी कहानी से हटकर इस फिल्म में दिल को छूती कहानी को बहुत सामान्य ढंग से व निरंतरता के साथ प्रदर्शित किया गया है, जो दर्शकों को अंत तक बांधे रखती है. हंसने-हसाने के दृश्यों के साथ ये फिल्म, दर्शकों को कई अवसरों पर भावुक हो जाने पर भी मजबूर कर रही है.
साथ ही ये फिल्म समाज व्याप्त शिक्षा प्राप्त करने के में असमान व अपर्याप्त अवसरों पर तीखा प्रहार भी है अगर आप रोजमर्रा की जिंदगी के हिस्सों को छू जाने वाली फिल्मों को देखना पसंद करते हैं, तो यह फिल्म जरूर देखिएगा.
       सोचता हूँ
बच्चों के साथ-साथ अभिभवकों के लिए भी शिक्षाप्रद, बाल मनोविज्ञान को उकेरती और सार्थक सन्देश देती इस फिल्म को उन अभिभावकों को अपने पाल्यों के साथ अवश्य देखना चाहिए जिनके पाल्य अपने अभिभावकों के त्याग व अपने भविष्य को लेकर संजीदा नहीं हैं. यदि शिक्षा विभाग द्वारा सरकारी स्कूल के चौथी से दसवीं कक्षा तक के बच्चों को इस फिल्म को दिखाने की नि:शुल्क व्यवस्था की जाय तो बहुत अच्छा होगा !
मैंने तो आज अपने व आस-पड़ोस के बच्चों की पूरी टीम को इस फिल्म को देखने हेतु प्ररित कर लिया है. आप भी प्रयास कीजियेगा ..


Friday 22 April 2016

स्वस्थ सांस्कृतिक परम्पराएँ .. हमारी पहचान : पगत भोज





 बरात पौन्छ्दा ही सरोळा जी की खरोळा खरोळ !!

                           स्वस्थ सांस्कृतिक परम्पराएँ .. हमारी पहचान


      एक ओर जहाँ शहर के तेज रफ़्तार और दिखावे भरे जीवन में हमारी सांस्कृतिक परम्पराएँ दम तोडती जा रही हैं वहीँ गांवों में अब भी ये परम्पराएँ जीवित हैं. शायद इसी लिए कहा जाता है कि यदि वास्तविक भारत को देखना और समझना है तो गाँव के जन जीवन का अध्ययन आवश्यक है. वास्तव में असली भारत अब भी गाँव में ही बसता है.
    बेशक आधुनिकता की चकाचौंध गाँव तक पहुँच गई है जिसके कारण शहर की तरह गाँव के छोटे बच्चे भी आपको अंकल कहकर संबोधित कर सकते हैं ! लेकिन राह चलते अजनबी व्यक्ति को भी गाँव के छोटे-छोटे बच्चे जब दोनों हाथ जोड़कर शालीनता से .. “ अंकल जी ... प्रणाम “ कहते हैं तो उन बच्चों के प्रति सहज स्नेह छलक जाता है और अनकहे भी दिल से आशीर्वाद भाव उमड़ पड़ता है.
     अब मूल विषय पर आता हूँ .. यात्रा क्रम में विवाह में भी शामिल होना था. शहर की शादियों में व्यंजनों की भरमार बेशक देखने को मिलती है लेकिन जो आनंद व संतुष्टि, गाँव की शादी में खुले प्राकृतिक वातावरण में पंगत अनुशासन में बैठकर सादे चावलों से बने भात और भडू में बनी नौरंगी (मिक्स) दड़बड़ी दाल में आता है वो शहरों की शादियों के व्यंजनों में नहीं आता (आपकी पसंद की बात तो नहीं कह सकता लेकिन मुझे तो बिलकुल नहीं आता). आज भी भडू की दाल के सामने किसी भी नामचीन सेफ द्वारा बनायीं गयी दाल नहीं टिकती !!
     इस संतुष्टि कारक दाल- भात को पकाने वाले एक विशेष जाति से सम्बन्ध रखते हैं जिन्हें “ सरोला “ कहा जाता है. ग्राम्य समाज में उच्च सम्मान प्राप्त ये लोग पीढ़ी दर पीढ़ी ये कार्य करते आ रहे हैं. जिस स्थान पर खाना बनाते हैं उस स्थान पर एक निश्चित सीमा के अन्दर अन्य लोगों का प्रवेश वर्जित होता है बेशक मालिक ही क्यों न हो !! इनके श्रम साध्य व धर्म निष्ठ व्यक्तित्व परआश्चर्य की बात ये भी है कि चिलचिलाती गर्मी हो या कड़कड़ाती सर्दी !! ये बिना किसी सहायक के अकेले ही कुशलता पूर्वक भोजन बना लेते हैं और अकेले ही गाँव के सभी लोगों को पंगत में अपने हाथों से भोजन भी परोस लेते हैं !!
       आधुनिकता की चकाचौंध और दिखावे की होड़ अब गाँव तक भी पहुँच गयी है. शादियों में शहरों से टेंट और हलवाई लाये जा रहे हैं. पंगत भोजन की जगह बूफे भोजन लेने लगा है परिवार की बढती आवश्यकतों की पूर्ति के लिए सरोला लोग शहरों में नौकरियां व अन्य व्यवसाय करने लगे हैं. लेकिन ऐसी परिस्थितियों में भी जो लोग अपने शुभ कार्यों में इस तरह की भाई-चारा व परस्पर सौहार्द बढ़ाने वाली स्वस्थ परम्पराओं को अपनाकर जीवित रखे हुए हैं वे वास्तव में बधाई के पात्र हैं ..
       दगड़ियो्ं, अब यन बता दौं कि दाळ भात कि रस्याण आप तक भि पौंछि कि नि पौंछि !! चला बैठा पंगत मा.. शुरू करा ..सपोड़ा.. सपोड़ !!

भडू में पकती दाल का जायजा 

भोजन तैयार करते सरोला जी 


भोजन परोसते सरोला जी 

पंगत में भोजन 

Thursday 21 April 2016

चरैवेती चरैवेती !!







चरैवेती चरैवेती !!


            ऋषिकेश-चंबा मार्ग पर मैदानी भागों से उत्तरकाशी से भी आगे ठन्डे स्थानों की तरफ अपने माता-पिता के साथ ग्रीष्मकालीन प्रवास के लिए बढ़ती इन बच्चियों से रूबरू हुआ. रात के अंधेरों में परिवार और मवेशियों के साथ अपने नन्हे-नन्हे क़दमों से कई किमी. की कठिन चुनौतीपूर्ण दूरी को मजबूत इरादों के साथ तय करती इन बच्चियों के पिता ने प्रारंभिक हिचकिचाहट के बाद मेरे मंतब्य को भांपते हुए, अंतत: इन बच्चियों, शाजमा और रेशमा, को मेरे साथ तस्वीर क्लिक करने की अनुमति दे ही दी.
         पूरी रात गंतव्य की ओर चलते हुए जहाँ कहीं भी इन घुमन्तू लोगों को सुबह के दीदार होते हैं वहीँ पानी के श्रोत के आसपास ये लोग अपने लिए भोजन व मवेशियों के लिए चारे की व्यवस्था के लिए व कुछ समय आराम करने हेतु वहीँ डेरा डाल देते हैं.गर्मी की आहट इन घुमंतू गुर्जर लोगों को पहाड़ी ठन्डे भागों की ओर, और सर्दी की इनके द्वार पर दस्तक, इन्हें मय पशुधन मैदानी भागों की ओर बढ़ने को मजबूर कर देती है !!
         पारंपरिक पाठशाला तो शायद इनके लिए स्वप्न सदृश ही है !! प्रकृति की गोद ही इन बच्चियों की वास्तविक व व्यावहारिक पाठशाला है ! और वही कर्मभूमि भी है. प्रकृति ही इन बच्चियों को कठिन परिस्थितियों में धैर्य पूर्वक सामंजस्य बना कर जीना सिखाती है, आत्मविश्वास उत्पन्न करती है.
        चरैवेती चरैवेती ... शायद यही जीवन मंत्र इन घुमंतुओं ने व्यावहारिक रूप में आत्मसात कर लिया है ..नहीं थकना .. नहीं रुकना .. सतत चलना सदा चलना ..
   प्रवास पर ये भी हैं ! और मैं भी !! लेकिन दोनों के प्रवास की प्रकृति में काफी भिन्नता है !!



सेवा और सेवा के अलग-अलग स्वरुप !!



सेवा और सेवा के अलग-अलग स्वरुप !!

         आधुनिक जीवन शैली में एक ओर महंगे विदेशी नस्ल के कुत्तों को पालना, सेवा की तुलना में स्व वैभव प्रदर्शित करने का जरिया अधिक बनता जा रहा है वहीँ मानव तिरस्कार झेलते भोजन की तलाश में सड़कों पर आवारा घूमते देशी नस्ल के कुत्ते बहुतायत में देखे जा सकते हैं जो कई बार परेशानी का सबब भी बन जाते हैं.
        हमारे आध्यात्मिक दर्शन व संस्कृति में कण-कण में और हर जीव में ईश्वर का अंश व वास माना गया है. इजराइल से आई ये तीन उम्रदराज पर्यटक महिलाएं उसी दर्शन को मूर्त रूप में चरितार्थ करती जान पड़ती हैं.
        राम झूला से लक्ष्मण झूला की तरफ बढ़ते हुए गंगा किनारे भीषण गर्मी में एक बीमार आवारा कुत्ते की ग्लूकोज लगाकर सेवा में मग्न, पशु चिकित्सा से जुडी इन तीन इजराइली महिलाओं ने बरबस ही ध्यान आकर्षित कर दिया !! जानकारी लेने पर पता लगा कि ये इस कुत्ते की कई दिनों से लगातार चिकित्सा कर रही हैं. केवल इस कुत्ते की ही नहीं ! बल्कि अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर, अपने वतन से बहुत दूर, प्रचार, सरकारी अनुदान या दान आदि की बिना चाहत के, इस धार्मिक व पर्यटन क्षेत्र के हर आवारा बीमार कुत्ते की पिछले तीन माह से व्यक्तिगत रूप से नि:स्वार्थ चिकित्सा कर रही हैं. सोचता हूँ पशु सेवा के माध्यम से ये अप्रत्यक्ष रूप से मानव सेवा ही है .
       विडंबना जानिए ! विदेशियों के इस पशु सेवा भाव में व्यावसायिक मानसिकता रखने वाले कुछ स्थानीय लोगों ने अपनी आमदनी का जरिया भी खोज लिया है ! इस क्रम में कुछ बाबा टाइप व कुछ स्थानीय लोगों ने आवारा कुत्ते पाल लिए हैं. विदेशियों को आकर्षित करने के लिए ये लोग विदेशियों के सामने पाल्य कुत्ते की सेवा करने का खूब ढोंग करते हैं !! विदेशी इस सेवा भाव के छलावे में आकर मालिक को कुत्ते की सेवा के लिए खूब धन देते हैं ! लेकिन विडंबना !! विदेशियों के स्वदेश लौटते ही ये स्वार्थी लोग उन कुत्तों को फिर कहीं दूर आवारा छोड़ देते हैं !! शायद ये लोग भूल जाते हैं कि इस तरह के आचरण से विदेशों में हमारी संस्कृति व सभ्यता को लेकर गलत संदेश भी जाता है !


Wednesday 20 April 2016

ज्ञान : जीने का साधन



ज्ञान सूचना संग्रह तक ही सीमित ही सीमित नहीं ! ज्ञान को जीने का साधन बनाना आवश्यक है ..

        जानकारियां ज्ञान में तभी परिवर्तित हो पाती हैं जब उसे व्यव्हार में लाया जाए.. विभिन्न धर्मो से सम्बंधित धर्मशास्त्रों में अलग-अलग क्षेत्रों से सम्बंधित महत्वपूर्ण जानकारिय हैं .कदाचित हम उनका सूचना के रूप में संग्रह तो कर लेते हैं लेकिन व्यवहार में लाने का प्रयास नही करते !
         विज्ञान भी किसी बात की सत्यता को व्यावहारिक होने पर ही स्वीकार करता है जबकि शास्त्रोक्त जानकारियां सिर्फ मोड़ हैं अंतिम पड़ाव नहीं ! इनमें संकेत है सबकुछ नहीं है ! ये साधन हैं साध्य नहीं ! ये मात्र इशारे हैं ईश्वर नहीं हैं ! अत: अपने धार्मिक इतिहास से केवल सूचना ही नहीं समझ लेने की क्रिया जारी रखी जाए तो उत्तम होगा.
         हम विभिन्न धर्म ग्रंथों को तो घर में श्रद्धा पूर्वक स्थान देते है लेकिन उनमे वर्णित जीने के तरीकों को आत्मसात नही कर पाते !!धर्मशास्त्रों से जानकारियों लेकर मानस पटल पर सूचनाये अंकित करना ज्ञान नही यदि ऐसा किया तो हाथ कुछ नहीं लगेगा, असल बात, इन जानकारियों के माध्यम से जीने की तैयारी कर उन तरीकों को आत्मसात करना है ! 


चल पड़े जिधर दो डग....




 चल पड़े जिधर दो डग,मग में चले कोटि पग उसी ओर : युगावतार महात्मा गाँधी

             आपका कोई भी काम महत्त्वहीन हो सकता है पर महत्त्वपूर्ण यह है कि आप कुछ करें.
                                                                  ... महात्मा गांधी
                    मोहनदास एक औसत विद्यार्थी थे, हालाँकि उन्होंने यदा-कदा पुरस्कार और छात्रवृत्तियाँ भी जीतीं। एक सत्रांत-परीक्षा के परिणाम में - अंग्रेज़ी में अच्छा, अंकगणित में ठीक-ठाक भूगोल में ख़राब, चाल-चलन बहुत अच्छा, लिखावट ख़राब की टिप्पणी की गई थी। वह पढ़ाई व खेल, दोनों में ही प्रखर नहीं थे। बीमार पिता की सेवा करना, घरेलू कामों में माँ का हाथ बंटाना और समय मिलने पर दूर तक अकेले सैर पर निकलना, उन्हें पसंद था। उन्हीं के शब्दों में उन्होंने 'बड़ों की आज्ञा का पालन करना सीखा, उनमें मीनमेख निकालना नहीं।' वह किशोरावस्था के विद्रोही दौर से भी गुज़रे, जिसमें गुप्त नास्तिकवाद, छोटी-मोटी चोरियाँ, छिपकर धूम्रपान और वैष्णव परिवार में जन्मे किसी लड़के के लिए सबसे ज़्यादा चौंकाने वाली बात - माँस खाना शामिल था. हर ऐसी नादानी के बाद वह स्वयं वादा करते 'फिर कभी ऐसा नहीं करूँगा' और अपने वादे पर अटल रहते। उनमें आत्मसुधार की लौ जलती रहती थी, भगवदगीता को उन्होंने सबसे पहले सर एडविन आर्नोल्ड के अंग्रेज़ी अनुवाद में पढ़ा.
                  बंबई न्यायालय में पहली ही बहस में वह नाकाम रहे। यहाँ तक की 'बंबई उच्च न्यायालय' में अल्पकालिक शिक्षक के पद के लिए भी उन्हें अस्वीकार कर दिया गया। इसलिए वह राजकोट लौटकर मुक़दमा करने वालों के लिए अर्ज़ी लिखने जैसे छोटे कामों के ज़रिये रोज़ी-रोटी कमाने लगे।
                डरबन न्यायालय में यूरोपीय मजिस्ट्रेट ने उन्हें पगड़ी उतारने के लिए कहा, उन्होंने इन्कार कर दिया और न्यायालय से बाहर चले गए। कुछ दिनों के बाद प्रिटोरिया जाते समय उन्हें रेलवे के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से बाहर फेंक दिया गया और उन्होंने स्टेशन पर ठिठुरते हुए रात बिताई। यात्रा के अगले चरण में उन्हें एक घोड़ागाड़ी के चालक से पिटना पड़ा,
              जुलाई 1914 में दक्षिण अफ़्रीका से गांधी के भारत प्रस्थान के बाद वहां की सरकार के प्रतिनिधि स्मट्स ने एक मित्र को लिखा था, 'संत ने हमारी भूमि से विदा ले ली है, आशा है सदा के लिए' ; 25 वर्ष के बाद उन्होंने लिखा, 'ऐसे व्यक्ति का विरोधी होना मेरी नियति थी, जिनके लिए तब भी मेरे मन में बहुत सम्मान था' ,
               उपरोक्त वर्णित कुछ घटनाओं से स्वयं में निरंतर आत्म सुधार और हर घटना का गहराई से चिंतन और प्रभावी प्रतिक्रिया ने एक सामान्य व्यक्ति को व्यक्तित्व की बुलंदियों तक पहुंचा दिया . हम भी इस महान व्यक्तित्व से कुछ सीख पायें ...ऐसी अभिलाषा निरंतर बनी रहेगी .


सादगी व उच्च जीवन मूल्यों की प्रतिमूर्ति




सादगी व उच्च जीवन मूल्यों की प्रतिमूर्ति : श्री लाल बहादुर शास्त्री

       लाल बहादुर शास्त्री जी ,जब वह छह साल के थे तब की एक घटना बहुत मशहूर हैं.एक दिन, स्कूल से लौट रहे जबकि, लाल बहादुर और अपने दोस्तों के साथ एक बाग़ में चले गए वे पेड़ के नीचे खड़े थे , जबकि उनके दोस्त पेड़ से आम तोड़ने लगे . इस बीच, माली आया और लालबहादुर को पकड लिया. माली ने लाल बहादुर को डांटा पिटाई शुरू कर दी. लाल बहादुर पर दया लेते हुए माली ने कहा, "क्योंकि तुम एक अनाथ हो , तुम्हें बेहतर व्यवहार सीखना चाहिए ." इन शब्दों ने लाल बहादुर पर एक गहरी छाप छोड़ी और उन्होंने भविष्य में बेहतर व्यवहार कसम की खाई और उसे अपनाया.
       शास्त्री जी के कार्यकाल में रेल दुर्घटना के बाद संसद में लंबी बहस के उत्तर में दृढ इच्छाशक्ति से भरपूर लालबहादुर शास्त्री ने कहा था, ‘मेरे छोटे कद और मृदुभाषी होने के कारण लोग अक्सर यह समझ लेते हैं कि मैं बहुत दृढ़ नहीं हूं. भले ही मैं शारीरिक रूप से मजबूत नहीं हूं, लेकिन मेरा मानना है कि मैं अंदरूनी तौर पर बहुत कमजोर नहीं हूं.
      पिता से जुड़ी कुछ यादें ताजा करते हुए अनिल शास्त्री जी ने बताया था , स्कूल के वक्त में हम लोग तांगे से स्कूल जाते थे और प्रधानमंत्री बनने के बाद हमने कार खरीदने की इच्छा जताई तो उस वक्त 12 हजार रुपए में कार आई थी.मगर बाबूजी के पास केवल सात हजार रुपए थे तो उन्होंने बैंक से पांच हजार ऋण लेकर कार खरीदी थी.
       अनिल शास्त्री ने एक घटना का जिक्र करते हुए कहा, मैंने जब अपना ड्राइविंग लाइसेंस बनवाया तो उसे प्रधानमंत्री आवास पर पहुंचा दिया गया. इस पर शास्त्री ने आरटीओ को बुलाया और फटकारते हुए कहा कि बिना ड्राइविंग टेस्ट और सत्यापन के किस आधार पर लाइंसेंस बना दिया गया.
क्या आज के राजनेताओं में इस तरह की नैतिकता की झलक दिखाई पड़ती है ??? क्या किसी राजनेता की आत्मा की आवाज़ इतनी प्रभावशाली है कि कोटिश: देशवासी सप्ताह में एक दिन अन्न का त्याग कर सकें ??यह चिंतन व आत्म मंथन का विषय है ..


कलम के सिपाही



कलम के सिपाही : मुंशी प्रेमचंद

         चारा घोटाले में दोषी करार दिए जाने के उपरांत, निराश लालू ने उसी समय सज़ा सुनाये जाने की बात कही थी. लेकिन जज पी के सिंह ने उनकी बात अनसुनी करते हुए उन्हें हिरासत में लेने का आदेश दिया.
       ज्ञातव्य हो कि जज पी के सिंह और लालू प्रसाद यादव दोनों ही पटना लॉ कॉलेज के छात्र रहे हैं. जज पी के सिंह कॉलेज में लालू से जूनियर थे. एक मामले की सुनवाई के दौरान कुछ समय पहले लालू ने जज साहब को कॉलेज के दिनों के संबंधों की याद भी दिलाई थी ...
      नियति का यह निर्णय स्कूली दिनों में पढ़ी, मुंशी प्रेम चंद जी की एक कालजयी कहानी की आत्मा को जीवंत करता निर्णय प्रतीत हुआ .!!


एक चुनौती !!..ई-सिगरेट.!!



एक चुनौती !!..ई-सिगरेट.!!

          नशा तो किसी भी प्रकार का बुरा है लेकिन युवाओं में परंपरागत नशे से हटकर नशा करना समाज के लिए एक समस्या बनता जा रहा है, इस प्रकार के नशे से प्रत्यक्षत: गंध या नशा परिलक्षित नही होता लेकिन युवाओं को यह नशा शारीरिक रूप से खोखला कर देता है.
       इस तरह के नशे में ई-सिगरेट नया उत्पाद है.. जिसमे सामान्य सिगरेट से,छ: गुना अधिक निकोटिन का सेवन किया जाता है.. बेटरी चालित व बाल पेन या अन्य डिजाइनों में उपलब्ध इस सिगरेट के विभिन्न उपकरण पुन: उपयोग योग्य हैं !!
            2003 में एक चीनी फार्मासिस्ट होन लिक द्वारा इलेक्ट्रॉनिक सिगरेट ईजाद किया गया फिर से भरे जाने योग्य कार्ट्रिज में उपयोग के लिए अलग से बेचे जाने वाले निकोटीन घोल को कभी-कभी "ई-लिक्विड" या "ई-जूस" कहा जाता है,विभिन्न निकोटीन सांद्रता में भी घोल उपलब्ध हैं, ताकि उपयोगकर्ता सेवन किये जाने वाले निकोटीन की मात्रा खुद तय करे. शून्य निकोटीन, निम्न और मध्य स्तर की खुराकों (क्रमशः 6–8 मिग्रा/मिली और 10–14 मिग्रा/मिली) से लेकर ऊंची तथा बहुत ऊंची खुराकों (क्रमशः 16–18 मिग्रा/मिली और 24–36 मिग्रा/मिली) में सांद्रता के स्तर होते हैं. सांद्रता की दरें अक्सर ही ई-लिक्विड बोतलों या कार्ट्रिज पर छपी होती हैं, हालांकि मानक संकेत "मिग्रा/मिली" की जगह प्रायः महज "मिग्रा" लिखा होता है.
       हुक्का बार बंद किये जाने के अभियान के बाद , ई-सिगरेट अभिभावकों व समाज के लिए एक बड़ी चुनौती है !!
 
 

दस्यु रत्नाकर से महर्षि वाल्मीकि तक !!



दस्यु रत्नाकर से महर्षि वाल्मीकि तक !!

पुराणों के अनुसार नागा प्रजाति में जन्मे महर्षि वाल्मीकि ने अपने डाकू के जीवन के दौरान एक बार देखा कि एक बहेलिए ने सारस पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी जोर-जोर से ‍विलाप कर रही है। उसका मादक विलाप सुन कर वाल्मीकि के मन में करुणा जाग उठी और वे अत्यंत दुखी हो उठे।
उस दुखभरे समय के दौरान उनके मुंह से अचानक ही एक श्र्लोक निकल गया-

'मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्।।'
अर्थात्- अरे बहेलिए, तूने काम मोहित होकर मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है, अब तुझे कभी भी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होगी।
इस श्र्लोक के साथ ही वाल्मीकि को एक अलग ही ज्ञान प्राप्ति का अनुभव हुआ तथा उन्होंने 'रामायण' जैसे प्रसिद्ध महाकाव्य की रचना कर दी। जिसे आम भाषा में 'वाल्मीकि रामायण' भी कहा जाता है। इसीलिए वाल्मीकि को प्राचीन भारतीय महर्षि माना जाता हैं।
ऋषि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण एक ऐसा महाकाव्य है जो हमें प्रभु श्रीराम के जीवन काल का परिचय करवाता है। जो उनके सत्यनिष्ठ, पिता प्रेम और उनका कर्तव्य पालन और अपने माता तथा भाई-बंधुओं के प्रति प्रेम-वात्सल्य से रूबरू करवा कर सत्य और न्याय धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।
महान संत और आदिकवि महर्षि वाल्मीकि का जन्म दिवस आश्विन मास की शरद पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। सादर नमन व वंदन ..
सतो, तमो और रजो गुण, मानव में जन्मजात निहित होते हैं ..उचित शिक्षा द्वारा ज्ञान प्राप्त कर तमो गुणों को शोधित किया जाता है, फलस्वरूप एक सभ्य समाज का निर्माण होता है .. आज समाज में " रत्नाकारों" की पूरी फ़ौज है क्या वे "महर्षि" बनाना चाहेंगे ?


गुमनाम नायक .... सलीम लंदुर




गुमनाम नायक .... सलीम लंदुर 

खुदी को कर बुलंद इतना के हर तकदीर से पहले
खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है ?
 ..इकबाल 
 
        अपराधी द्वारा प्रयुक्त मोबाइल या मोबाइल की सूचनाओं के माध्यम से अपराधी तक पहुंचना व पुख्ता सबूत एकत्र करना पहले पुलिस के लिए पहाड़ खोद कर चुहिया को खोजने जैसा यत्न था.
           लेकिन बेलगाम के, कॉलेज से अधूरी शिक्षा छोड़ने वाले, 37वर्षीय सलीम लंदुर साहब ने कंप्यूटर शिक्षा प्राप्त करने के अपने स्वप्न को साकार करने हेतु रातों को ऑटो रिक्शा चलाकर, म्हणत और लगन द्वारा ..यह कठिन कार्य महज एक क्लिक पर कर सकने का सोफ्टवेयर निर्मित कर आसान कर दिया.
        सन 2000 में एक छोटे से कमरे में 1500 रुपये मासिक किराये पर लिए गए कंप्यूटर से कंपनी प्रारंभ करने वाले सलीम साहब आज पुलिस को CDR (Call detail record Analysis ) के आधुनिक सोफ्टवेयर उपलब्ध करा कर राष्ट्र सेवा कर रहे हैं.
        भारत ही नही नाईजीरिया व अल्जीरिया की पुलिस भी सलीम साहब के सोफ्टवेयर के माध्यम से अपराधियों के डिजिटल फुटप्रिंट को खंखाल कर, अपराधियों को पकड़ रही है ....
आपके ज़ज्बे को सलाम .....सलीम साहब ...


कसौटी



       तस्वीर आधारित कहानी आपने अवश्य सुनी या पढ़ी होगी ...हाथी के विभिन्न अंगों को छूकर चारों दृष्टिहीनों ने जिस अंग को छुआ उसी प्रकार हाथी के आकार का अनुमान लगा लिया ..जब वे आपस में हाथी के आकार पर चर्चा करने लगे तो चारों अपने अनुसार हाथी का आकर होने की बात पर अड़ने लगा.
       चारों दृष्टिहीनों में जूतम-पैजार होने लगी यह देख पास ही गुजरते गांव के एक ताऊ ने पहले तो उन्हें लड़ते झगड़ते छुड्वाया फिर डाक्टर के पास ले जाकर उनकी आँखों का ओपरेशन करवाया | जब चारो दृष्टिहीनों की आँखों की आँखों में रोशनी आ गयी तब ताऊ उनको एक हाथी के सामने ले गया और बोला - ये देखो हाथी ऐसा होता है . तब अंधों को पता चला कि उनके हाथ में तो हाथी का अलग- अलग एक एक अंग हाथ आया था और वो उसे ही पूरा हाथी समझ रहे थे.|

      कमोवेश उसी प्रकार आजकल कुछ लोग,आधे-अधूरे, सुने-सुनाये एकांगी ज्ञान या विकृत व पूर्वाग्रह ग्रसित मन:स्थिति वाले लेखक की पुस्तक या लेख को पढ़ कर स्वयं को " ज्ञानी " समझ लेते हैं. इसका कारण उनको विरासत में मिली, खुद की संकीर्ण व कुंठित मानसिकता भी हो सकता है !!
       फलस्वरूप वे "ज्ञानी" महपुरुषों व गुज़रे समय के महान नेताओं के व्यक्तित्व व कृतित्व के साथ-साथ साथियों की पोस्ट भी नकारात्मक,अभद्र,अशालीन, अमर्यादित व मूर्खतपूर्ण टिप्पणियां करके स्वयं को "गौरवान्वित" महसूस करते हैं। इस तरह वे "ज्ञानी" स्वयं के पाल्यों के साथ-साथ समाज में वर्तमान पीढ़ी को "मुफ्त में" दिग्भ्रमित व असंस्कारित करने का ही कार्य कर रहे हैं !!
        समाज के हर हर क्षेत्र में इन "तथाकथित ज्ञानियों" के सानिध्य में "अंथभक्तों" की "जुगलबंदी", इन ज्ञानियों को ईंधन देने का काम कर रही है और उनका हौसला बढ़ा रही है !
       विवेकानन्द जी ने कहा था यदि हमें बिना स्वयं मूल्यांकन किए ही किसी का अनुसरण करना होता तो कुछ लोगों को ही ज्ञानेन्द्रियाँ मिली होती और शेष उनका अनुसरण करते !!
        सामाजिक सौहार्द की दृष्टि से यह एक अशोभनीय कृत्य है, जो नकारात्मक ध्रुवीकरण को पोषित करता है। ऐसे लोग समाज को तब तक दिग्भ्रमित करते रहेंगे जब तक इन्हें कोई “ ताऊ “ नहीं मिल जाता !!!
     ये लोग या तो अज्ञानतावश ऐसा करते हैं या स्वार्थवश ऐसा कृत्य करते हैं। शायद ऐसे लोगों में तुलनात्मक अभिवृत्ति का नितांत अभाव होता है !! उन में इतना समझने का विवेक नही कि तत्कालीन देश काल और परिस्थितियाँ कहीं न कहीं निर्णयों को प्रभावित करती हैं।
      और न ही ये " ज्ञानी" पोस्ट को ठीक से समझने का प्रयास करते हैं। हर जगह अपने "पांडित्य" प्रदर्शन की "होड़" में रहते हैं !!
        फेसबुक पर देखता हूँ, कमोवेश हर कोई (उनमें मैं भी शामिल हूँ) स्वयं को " उठाईगीरी " से प्राप्त सूचना के आधार पर, विषय प्रज्ञ साबित करने की होड़ में है!!
      लेकिन __
       किसी भी स्रोत से प्राप्त ज्ञान या सूचनाओं को भावनात्मक पूर्वाग्रह त्याग कर .... सत्यता व व्यवहारिकता की कसौटी पर कसना आवश्यक है। तभी वह ज्ञान या सूचना समाज हित में उपयोगी है। ^^ विजय 


अल्प ज्ञान !


       आपने एक कथा अवश्य सुनी होगी ..तीन मित्र एक सिद्ध पुरुष के पास पहुंचे और कहा .” महाराज,तमाम तरह के यत्न किये. बहुत विद्वानों के पास गए लेकिन हमें कहीं ज्ञान प्राप्त नही हुआ. आप हमारे ज्ञान मार्ग को प्रशस्त कीजियेगा.”
     सिद्ध पुरुष ने कहा. “ मेरे पास कोई चमत्कार नही जो पल भर में तुमको ज्ञान प्राप्त हो सके. पहले मैं तुम तीनों की परीक्षा लूँगा. “
     सिद्ध ने तीनों को कौवे पर निबंध लिखने को कहा..
     पहले ने लिखा ..कौवे के बारे में मुझे कुछ लिखना नही आता मैं तो निरा गंवार और अनजान हूँ ..
     दूसरे ने लिखा .कौवा ऐसा पक्षी है जिसकी तीक्षण बुद्धि होती है उस जैसा गुण यदि इंसान पा ले तो कभी दुखी नही रह सकता .
     तीसरे ने लिखा .. कौवा रंग में जिस प्रकार काला होता है उसी प्रकार उसकी नियत में भी खोट होता है जो सुबह-सुबह उसे देख ले उसका पूरा दिन बेकार चला जाता है ..
यह सब पढ़ कर सिद्ध ने फैसला दिया .. ‘कौवे के बारे में जो नहीं जानता उस निरे अज्ञानी को और जो उसमें दूरदृष्टि देखता है उस परम बुद्धिमान को मैं अपना शिष्य बनाऊंगा जिसने कौवे में केवल दोष देखे उसमें एक भी गुण नही देख पाया उस अल्पज्ञानी को मैं ज्ञान नही दे पाऊंगा.

       अल्पज्ञानी के मस्तिष्क में अल्पज्ञान के रुप में अधकचरे ज्ञान का समावेश होता है जो किसी भी बात को उसके मस्तिष्क तक पहुंचने ही नहीं देता. वह अर्जित आधे-अधूरे ज्ञान को पूर्ण मान कर उसका प्रदर्शन करने लगता है और इस क्रम में यदि उसे कुछ अज्ञानियों या अल्पज्ञानियों का समर्थन प्राप्त हो जाता है तो उसमे धीरे-धीरे ज्ञान का अहंकार घर कर जाता है परिणाम यह होता है कि वह किसी की बात सुनना या समझना ही नही चाहता.
      कमोवेश, आज समाज में ऐसे ही अल्पज्ञानियों (स्वयंभू भगवान) की अधिकता दिखायी देती है जो स्वयम तो माया में आकंठ डूबे हुए हैं लेकिन माया से विरक्त होने का वाचन करते हैं !! विडंबना यह है कि ऐसे अल्प ज्ञानियों से,ज्ञान प्राप्त करने हेतु अज्ञानियों व अल्पज्ञानी की कतारें लगी होती हैं !! इसका परिणाम क्या होता है इससे हम सब अनविज्ञ नही !! ^^ विजय 


सतरंगी खुशियों बरसें उपवन में



सतरंगी खुशियों बरसें उपवन में
नित मिलकर मनाएं हम दिवाली

पल्लवित-पुष्पित और गुंजित हर दिन
नन्ही मुस्कानों से खिलती रहे फुलवारी

हर्षित हो हम सब मिलजुल कर
कुत्सित भावों को अब दें तिलांजलि

समरसता के भावों सी सरिता हो
उत्साहित ,सुबह और शाम हमारी

करें तिमिरता को आलोकित
अब प्रदूषणरहित मनाएं हम दिवाली

ज्ञान के दीपक जलें संग-संग
संग-संग हम रोज़ मनाएं दिवाली..


मन की शांति





मन की शांति

        विद्वानों द्वारा बताए अनुसार आचरण कर थका हारा एक युवक स्वामी विवेकानंदजी के पास आया और उनसे कहने लगा, ‘‘स्वामीजी, मैं घंटो तक बंद कक्ष में बैठकर ध्यानधारणा करता हूं । परंतु मन की शांतिका अनुभव नहीं करता ।’’
        यह सुनकर स्वामीजी बोले, ‘‘सबसे पहले कक्ष का द्वार खुला रखो । अपने आस-पास रहनेवाले दुःखी, रोगी तथा भूखे लोगों को ढूंढो । अपनी क्षमतानुसार उनकी सहायता करो ।’’
इसपर उस युवक ने प्रतिप्रश्नथ किया, ‘‘किसी रोगी व्यक्ति की सेवा करते हुए यदि मैं ही बीमार पड़ गया तो ?’’
      विवेकानंद जी ने कहा, ‘‘तुम्हारी इस कुशंका से मेरे यह ध्यान में आया है कि तुम्हें प्रत्येक अच्छे कार्य में कुछ ना कुछ अनिष्ट दिखता हैं । इसीलिए तुम्हें शांति नहीं मिलती । शुभकार्य हेतु विलंब नहीं करते तथा उनमें दोष भी नहीं निकालते । यही मनःशांति प्राप्त करनेका निकटतम मार्ग है ।“
      आज समाज में कमोवेश हर अच्छे कार्य में छिद्रान्वेषण व दोष अन्वेषण की प्रवृत्ति का विस्तार हो रहा है. !! जो समाज के लिए घातक है. हर अच्छे कार्य का समाज हित तत्पश्चात व्यक्तिहित में निष्पक्ष, दीर्घावधिक तथा सामयिक मूल्यांकन आवश्यक है तभी समाज में शांति और प्रगति संभव है. केवल ‘किन्तु‘ और ‘परन्तु‘ की मानसिकता उन्नयन का नही बल्कि अवनयन का मार्ग प्रशस्त करती है.

भयंकर शस्त्र : स्वातंत्र्यवीर सावरकर




भयंकर शस्त्र : स्वातंत्र्यवीर सावरकर

     ‘एक समय लंदन में गुप्तचरों ने सावरकर जी को जांच-पडताल के लिए रोका और कहा, ‘‘महाशय, क्षमा कीजिए, हमें आप पर शंका है । आपके पास भयानक शस्त्र है ,ऐसी निश्चित सूचना होने से आपकी जांच-पडताल करनी है ।’’ सावरकर रुक गये, गुप्तचरों ने जांच-पडताल की । कुछ भी नहीं मिला । गुप्तचरों का प्रमुख अधिकारी सावरकर जी से बोला, ‘‘क्षमा कीजिए, अनुचित सूचना के कारण आपको कष्ट हुआ ।’’ सावरकरजी ने कहा, ‘‘आपको मिली सूचना अयोग्य नहीं है । मेरे पास भयानक शस्त्र है ।’’ जेब में रखी लेखनी (पेन) निकालकर सावरकर बोले, ‘‘ देखिए ! यह शस्त्र । इससे निकलने वाला प्रत्येक शब्द युवाओं को अन्याय के विरुद्ध लडने की प्रेरणा देता है । इन शब्दों से देशभक्तों का रक्त खौलता है तथा वे राष्ट्र के लिए प्राणों को संकट में डालकर लडने हेतु तत्पर रहते हैं ।’’

       एक देशी कहावत है “लिखतम के आगे बख्तम नही चलती” अर्थात हम कुछ भी कहते रहें लेकिन लेखनी ने जो लिख दिया वही महत्वपूर्ण है।

       अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान अवश्य किया जाना चाहिए लेकिन दूसरे की स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं !! अज्ञानता, स्वार्थसिद्धि या मौज-मस्ती वश कुछ भी लिख देना, लेखनी की ताकत को प्रदर्शित नही करता !! राष्ट्र हित में राष्ट्रीय चरित्र निर्माण हेतु लेखनी से मर्यादित, सार्थक व सशक्त शब्द प्रवाह बहे तो ही “ लेखनी “ की ताकत, समाज में सार्थक जन चेतना ला सकती है।
 
 

निरंतर नकारात्मक चिंतन व छिद्रान्वेषण : उचित या अनुचित !!



निरंतर नकारात्मक चिंतन व छिद्रान्वेषण : उचित या अनुचित !!

        कई बार समाज में कुछ लोग अपने विचार, मूल्यांकन व मन:स्थिति को सर्वोत्तम मानकर उसके विपरीत घट रहे घटना क्रम या माहौल ( बेशक वह उचित ही क्यों न हो ) से तालमेल बिठाने में, संचित पूर्वाग्रह या अहंकार वश, स्वयं को असहज महसूस करते हैं या जानकर ऐसा नही करना चाहते !!       
        फलस्वरूप ऐसे लोग निराशा का शिकार हो छिद्रान्वेषण, विचार विष वमन जैसे कुंठित कृत्यों से संलग्न होकर, सम प्रवृत्ति के साथियों को अपनी ओर आकृष्ट करने का प्रयास करते हैं, इस कार्य में उनको कुछ हद तक कामयाबी भी मिल जाती है लेकिन वह काल निबद्ध होती है.. व्यक्तिगत मन:स्थिति को संतुष्ट करने के क्रम में, समाज में अवसाद निर्मित करने का उनका कृत्य निंदनीय व घृणित चेष्टा अवश्य है, जो कि भावी पीढ़ी में स्वस्थ संस्कारों का सम्प्रेषण या हस्तांतरण नही करता !!  
      जिस लकड़ी को हम जलाने का प्रयास करते हैं उसकी ज्वाला ताप वृद्धि के साथ हमारी तरफ ही बढती है जब ज्वाला हमारे शरीर के बहुत करीब पहुंच हमें हानि पहुँचाने की स्थिति में आ जाती है तो    अफरा-तफरी में स्वयं को सुरक्षित करने हेतु हमे उस लकड़ी को त्यागना होता है उस समय हम जलती लकड़ी को फेंकने के उचित-अनुचित स्थान का निर्णय कर पाने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं, फलस्वरूप असावधानी, दावानल में भी परिवर्तित हो सकती है !!
          व्यक्तिगत सोच का देशकाल परिस्थितियों से सकारात्मक व उचित तालमेल बिठाना नितांत आवश्यक है.. निरंतर नकारात्मक चिंतन या छिद्रान्वेषण न व्यक्ति हित में है न समाज हित में और न ही राष्ट्र हित में ... ^^ विजय 


राजनीति की “ गंगा “



राजनीति की  “ गंगा “

       बेशक हम प्रत्यक्ष रूप से किसी राजनीतिक दल के प्रति अपनी प्रतिबद्धता स्वीकार न करें लेकिन वोट तो हम किसी न किसी राजनीतिक पार्टी को देते ही हैं. लिहाजा हमारे विचारों और चिंतन में उस राजनीतिक दल या विचारधारा की छाया, सावधानी बरतने के बाद भी आ ही जाती है.
        रोचक बात ये है कि स्वयं को किसी राजनीतिक दल या विचारधारा से न जुड़े होने का दावा करने वाले अधिकतर लोग ही सदैव किसी राजनीतिक दल के पक्ष में खड़े दिखते हैं !!
      मैं भी यह मानता हूँ कि राजनीतिक चिंतन निरर्थक नही, राजनीतिक चिंतन का अभाव, विचार स्थिरता और निरंकुशता को जन्म देता है. परन्तु सोचता हूँ कितना अच्छा और राष्ट्र हित में होता यदि हम हर अच्छे प्रयास का, दलगत राजनीति से ऊपर उठकर ..” किन्तु..परन्तु.. लेकिन “ ..आदि में न उलझकर, खुले दिल से स्वागत करते !!.. क्या हमारे पास हर कार्य का विरोध करने के अलावा कोई और मुद्दा नही ??
        अक्सर देखता हूँ यदि कोई राजनीतिक दल कोई नया काम करता है तो या तो उस पर छिद्रान्वेषण, आलोचना व विरोध प्रारम्भ कर दिया जाता है और यदि समाज में अधिसंख्यक स्वीकार्यता के चलते यह संभव न हो पाता तो चुप्पी साथ ली जाती है. इस उपक्रम के पीछे सराहना न कर सकने की मनोवृत्ति साफ़ झलकती है !! क्योंकि कुछ लोगों की संकीर्ण मानसिकता यह कहती है कि सराहना करने से सम्बंधित दल को फायदा हो सकता है.. और यदि सराहना करने की मजबूरी आन ही पड़ी !! तो,शब्दों को इस प्रकार साध कर सराहना की जाती है कि कहीं सम्बंधित दल की अच्छे कार्य के लिए सीधे-सीधे प्रशंसा किये जाने का संकेत समाज में न पहुँच जाए !! ऐसा करने पर उनको जनाधार सिमटने व अपनी विचारधारा के पराभाव का भय सालता है !!
         यदि आप उनकी दलगत चट्टान से निकली राजनीतिक “ गंगा “ में नहायेंगे तो ही पवित्र हैं !! परन्तु उनकी ‘ गंगा “ से हटकर, यदि आप गंगोत्री से निकलने वाली गंगा में नहा लिए तो आपकी पवित्रता पर संशय किया जा सकता है !! आजकल कई राजनीतिक दलों ने यह चिंतन अपनाया हुआ है. जब दूसरा दल कुछ करे तो पानी पी-पी कर उसका विरोध तय है लेकिन जब वो स्वयं करते हैं तो उसी बात को सही ठहराने के लिए उन दलों के प्रवक्ताओं के पास एकाधित तर्क तैयार मिलते हैं. यहाँ “ उसकी साडी मेरी साडी से अधिक सफेद कैसे !! वाला भाव, नकारात्मक रूप में स्पष्ट परिलक्षित होता है ।
        गंगा एक ही है जो कि सास्वत सत्य है उसका प्रवाह हम बाँध बनाकर कुछ समय तक रोकने का प्रयास तो कर सकते हैं लेकिन चिरकाल तक ऐसा कर पाना संभव नही !! क्या ही अच्छा होता हम अच्छे कार्यों का खुले दिल से स्वागत और गलत कार्यों का सशक्त विरोध करने की मनोवृत्ति को विकसित व प्रदर्शित कर पाते.. अर्थात अपने खोटे सिक्के को “ खोटा “ कह सकने की हिम्मत जुटा पाते !! काश !!हम दलगत निष्ठाओं से ऊपर उठ पाते तो शायद सही और गलत का वास्तविक मूल्यांकन हो पाता !! जो राष्ट्र की तरक्की में सहायक होता !! ^^ विजय 


प्रकृति मित्र



जन जागृति अभियानों के साथ-साथ, अभिभावकों व शिक्षक वर्ग द्वारा,जैव विविधता के साथ, प्रकृति सरंक्षण हेतु, बच्चों में बचपन से ही प्रकृति मित्र बनने आधारित संस्कारों का हस्तांतरण करना अति आवश्यक है ..
प्रकृति है तो ही हमारी भावी पीढ़ी का भविष्य सुरक्षित है 


छोटे मिंयाँ



          ये हैं, छोटे मिंयाँ चैतन्य प्रकाश सिंह जयाड़ा, अभी दसवीं में हैं अबकी बार यायावरी में, जनाब मेरे साथ ही रहे. रुचियों के अनुरूप देखा जाय तो ये बिलकुल मुझ पर गए हैं यानी पढ़ाई पर कम ध्यान है फुटबॉल खेलने पर अधिक !! हालाँकि मैं क्रिकेट और हॉकी खेला करता था !!
         चयन प्रक्रिया में फर्जी उम्र प्रमाण पत्र धारियों व अयोग्य सिफारिशी खिलाडियों के चयन से सख्त नाराजगी है इन्हें !! अभी छुट्टियों में हिमाचल गए थे, जनाब .. वहां बहुत अच्छे प्रदर्शन के कारण इनको राष्ट्रीय स्पर्धा में चयनित होने की पूरी उम्मीद थी लेकिन चयनित खिलाडियों की सूची का अभी तक कोई अता-पता नहीं !!!
       टीम में सबसे कम उम्र का खिलाडी होने के कारण, चयन न होने पर, हम इनको कम उम्र का हवाला देकर प्रोत्साहित करते रहते हैं. साथ ही फुटबॉल में आई.पी.एल. जैसी कवायद से आशान्वित रहने हेतु दिलासा देते हैं..


हर करम अपना करेंगे ऐ वतन तेरे लिए



हर करम अपना करेंगे ऐ वतन तेरे लिए ......

आइये !  माँ भारती का सतरंगी श्रृंगार करें...


मानसिक बंधीकरण ..



मानसिक बंधीकरण ..

          रेगिस्तान में एक व्यक्ति कई ऊँटों को लेकर जा रहा था, रात हुई तो निकट की सराय में ठहर गया. ऊँटों को खूँटी से बाँधने के क्रम में एक ऊँट को बाँधने के लिए रस्सी कम पड़ गई ! व्यक्ति परेशान होने लगा तो सराय के मालिक ने, व्यक्ति को ऊँट के समक्ष खूँटी से बाँधने का स्वांग करने की सलाह दी !! खूँटिया गाड़ने के क्रम में हथौड़ा ठोककर आवाजें की गयी !! ऊँट के गले से रस्सी बांधकर खूँटी से बाँधने का स्वांग किया गया !!
      परिणामस्वरूप ऊँट उसी जगह बैठ गया मानो उसे खूँटी से बाँध दिया गया हो !!और सो गया ! सुबह व्यक्ति ने सभी ऊंटों को खूँटियाँ उखाड़ी और रस्सियाँ खोली. सभी ऊँट चल पड़े लेकिन वह ऊँट बैठा रहा !!
       पुन: उस ऊँट के सामने, खूँटी उखाड़ने व रस्सी खोलने का स्वांग किया गया (जिनका अस्तित्व ही न था), और वह ऊँट भी उठकर चल दिया !!
कमोवेश हम भी ऐसी ही खूंटियों और रस्सियों से मानसिक रूप में किसी न किसी रूप से विपरीत       

        मान्यताओं, दुराग्रह और झूट के प्रति इतना आसक्ति बंधित हो जाते हैं कि प्रत्यक्ष व तथ्यात्मक विश्लेषण किए बिना ही सत्य को नकारने लगते हैं !! शायद हमें स्वयं के अहम हरण की चिंता सताने लगती थी !! परिणाम स्वरुप हम अपना मन और मस्तिष्क दूसरे के पास गिरवी रख देते हैं !! और स्वयं विवेक शून्यता में जीने लगते हैं !! फलस्वरूप ऊँट के मालिक की तरह सम्बंधित पक्ष बिना प्रतिरोध के अपने हित साधने में सफल हो जाता है !! यह स्थिति तानाशाही को जन्म देती है ..
        यह स्थिति स्वयं और समाज के, सकारात्मक दृष्टि से उन्नयन में बहुत बड़ी बाधा है.
          समाज के व्यापक हित में मानसिक बंधनों को तोड़ सकने की हिम्मत दिखानी ही होगी ! तथ्यात्मक तथा भावात्मक विश्लेषण करने के साथ-साथ व्यापक दृष्टिकोण अपनाकर ही समाज को सकारात्मक दिशा दी जा सकती है।

Wednesday 13 April 2016

नेतृत्व का गुण



          
  आज बेटे के विद्यालय, सैंट मैरीज सीनियर सेकेंडरी स्कूल में छात्र/छात्राओं को सौंपे गए विभिन्न दायित्वों से सम्बन्धित छात्र/छात्राओं का शपथ ग्रहण कार्यक्रम था. विद्यालय का खेल दायित्व लेने के बाद खेल गतिविधियों में व्यस्तता के कारण बारहवीं की बोर्ड परीक्षा की तैयारी में होने वाले संभावित व्यवधान को समझते हुए .. अनिच्छा के बावजूद भी पुत्र, चैतन्य प्रकाश सिंह जयाड़ा को विद्यालय खेल कप्तान का दायित्व लेने से मना न कर सका. !!
            शायद ! बेटे को दायित्व लेने से दृढ़तापूर्वक मना न करने का मुख्य कारण, स्वयं मेरी खेल पृष्ठभूमि का होना भी है।
              चैतन्य, विद्यालय फुटबॅाल टीम का कप्तान तो पहले से ही है लेकिन अब विद्यालय के सभी खेलों से जुड़ी व्यवस्थाओं के लिए अध्ययन के साथ-साथ समय निकाल पाना कठिन अवश्य है लेकिन यदि दृढ़ इच्छा शक्ति हो तो शायद असंभव भी नहीं !
          
सोचता हूँ, सम्प्पूर्ण व्यक्तित्व निर्माण के क्रम में अध्ययन के साथ-साथ विभिन्न क्रियाकलापों के माध्यम से नेतृत्व का गुण विकसित किया जाना भी बहुत आवश्यक है.

चंपा ..भँवर न आयें पास



चंपा ..भँवर न आयें पास....

              विद्यालय भवन के प्रथम तल पर हमने अपनी कक्षा के बाहर 10-12 बड़े गमलों में कुछ सज्जाकार और कुछ फूल वाले पौधे लगाए हैं जिनकी देखभाल मेरी कक्षा के बच्चे स्व सुविधानुसार स्वेच्छा से करते है.
आज सुगंध बिखेरते खूबसूरत चंपा (Plumeria) के खिले हुए पुष्प गुच्छ ने अपनी तरफ आकर्षित कर दिया...कामदेव के पाँच फूलों में गिने जाने वाले परागहीन, सुगंध बिखेरते चंपा के फूल पर भँवरे और मधुमक्खियाँ नहीं बैठती इस सम्बन्ध में पौराणिक कथाओं में कुछ इस तरह कहा गया है..


  
चम्पा तुझमें तीन गुण-रंग रूप और वास,
  अवगुण तुझमें एक ही भँवर न आयें पास..
रूप तेज तो राधिके, अरु भँवर कृष्ण को दास,
  इस मर्यादा के लिये भँवर न आयें पास..


Tuesday 12 April 2016

“ राजा होना सुखी होने का साधन नहीं है “



“ राजा होना सुखी होने का साधन नहीं है “ .. चाणक्य

        आज छुट्टी का दिन था, भ्रमण को लेकर उहापोह में था !! तभी श्री सानंद रावत जी का फेसबुक पर ही निमंत्रण मिला और पहुँच गया सीरी फोर्ट ऑडिटोरियम !!
      दरअसल यहाँ वार्षिक शिक्षक सम्मलेन 2016 के अंतर्गत मनोज जोशी कृत व निर्देशित तथा मिहिर भूता रचित नाटक, “ चाणक्य “ का "भारतीय धरोहर" संस्था द्वारा 975 वीं प्रस्तुती के तौर पर मंचन होना था. शिक्षा व संस्कृति से जुड़े स्वदेशी व विदेशी शिक्षाविदों के सानिध्य में जोशी जी के कुशल निर्देशन व पात्रों के जीवंत अभिनय के साथ-साथ कर्णप्रिय संस्कृत निष्ठ हिन्दी में रोचक, प्रभावशाली व धाराप्रवाह संवादों ने खचाखच भरे प्रेक्षागृह में दर्शकों को ढाई घंटे तक सम्मोहित रखा.
         लगभग 2300 साल पुराना ऐतिहासिक चरित्र, चाणक्य, सभी धर्मों से ऊपर, राष्ट्रधर्म का भाव उत्पन्न करने के लिए आज भी उस काल जितना ही सार्थक व प्रासंगिक तो है ही साथ ही राष्ट्र निर्माण में शिक्षकों के योगदान के संदर्भ में सभी शिक्षकों के लिए प्रेरणास्रोत भी है..
         राष्ट्र को संगठित रखने में एक शिक्षक की महत्वपूर्ण भूमिका को प्रदर्शित करते इस नाटक में ढाई घंटे की अल्प अवधि में चाणक्य के व्यक्तित्व व कृतित्व को जिस खूबसूरती और प्रभावशाली तरीके से प्रदर्शित किया गया वह निश्चित ही काबिले तारीफ़ है.
        रंगमंच, अभिनय के किसी अन्य मंच की तुलना में सबसे चुनौतीपूर्ण होता है, जहाँ रिटेक की कोई गुंजाइश नहीं होती ! दर्शक, अभिनेता के एकदम सामने होते हैं ! और अभिनेता को अपना सर्वोत्तम एक बार में ही प्रस्तुत करना होता है ! नाटक के सभी पात्रों का अभिनय जीवंत, स्वाभाविक, प्रभावशाली व मंत्रमुग्ध कर देने वाला था। नाटक के मुख्य चरित्र, चाणक्य का किरदार निभा रहे पात्र ने अपने किरदार को बखूबी निभाकर अपने अभिनय से दर्शकों के दिल को छू लिया. पार्श्व संगीत ने दृश्यों को जीवन्तता प्रदान करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी। पार्श्व ध्वनि के माध्यम से सूत्रधार द्वारा नाटक की विभिन्न कड़ियों को सफलतापूर्वक जोड़कर लय बनाए रखने का प्रयास सराहनीय था। मंच सज्जा व वेशभूषा उस काल खंड वातावरण निर्मित करने में सफल रहा।
ट्रिनिडाड (वेस्ट इंडीज) से आये शिक्षाविद् व ट्रिनिडाड में विश्व विद्यालय के उप कुलपति, सन्यासी महोदय के मुखारविंद से सुनकर आश्चर्य हुआ कि वहां के विश्व विद्यालयों में वेदों का अध्ययन अनिवार्य है साथ ही अमेरिका में प्राथमिक कक्षाओं में संस्कृत पढाई जा रही है ! उनके इस कथन ने सोचने पर भी मजबूर किया कि भारत में रह कर यहाँ की संस्कृति की गहराई और ऊँचाई का आभास नहीं होता !! यह आभास विदेश में रहकर ज्यादा करीब से होता है !!
        नाटक में चाणक्य द्वारा चन्द्रगुप्त को ये निर्देशित करना कि .. “ राजा होना सुखी होने का साधन नहीं है “ संक्षिप्त में बहुत गहरा और सार्थक सन्देश देने में सफल रहा.
कुल मिलाकर आयोजन सार्थक व प्रभावशाली संदेश दे सकने में पूर्ण सफल रहा।
नाट्य मंचन पश्चात नि:शुल्क भोजनोपरान्त मित्रों के साथ कुछ सुखद पलों की तस्वीर में मेरे दायें श्री सानंद रावत (प्रधानाचार्य), बाएं श्री मंगल कसाना व श्री चेतन सहरावत अध्यापक मित्र हैं। 


Monday 4 April 2016

मेरी प्रेरणा स्रोत पुस्तक ; “ मेरी दिल्ली “



मेरी प्रेरणा स्रोत पुस्तक ; “ मेरी दिल्ली “

        प्रेरणा या उत्प्रेरण किस माध्यम से कब और किस दिशा में मिल जाय कुछ कहा नहीं जा सकता !! ख्याति प्राप्त व्यक्तित्व, घटना या पुस्तक भी प्रेरणा या उत्प्रेरण का काम कर सकते हैं.
आप मेरे यात्रा वृत्तांत पढ़ते हैं दिल से सराहते हैं इसके अलावा आपके प्रोत्साहन के फलस्वरूप इन यात्रा वृतांतों का रेडियो से प्रसारण व समाचार पत्रों में भी प्रकाशन हो चुका है. कई साथी यह जानने को उत्सुक रहते हैं कि विभिन्न ऐतिहासिक स्थानों पर जाकर वहां का यात्रा वृतांत लिखने कि प्रेरणा मुझे कहाँ से मिली ??
     अदना सा व्यक्ति हूँ इसलिए इस सम्बन्ध में बड़ी-बड़ी बात नहीं करना चाहता ! हालाँकि इस सम्बन्ध में रूचि तो पहले से ही थी लेकिन 2014-15 में जब मेरे पास कक्षा तीन थी तो मुझे पाठ्यक्रम में सामजिक विषय के रूप में सम्मिलित पुस्तक, “ मेरी दिल्ली “ भी पढ़ानी थी ! इस पुस्तक में कक्षा आयु वर्ग के मानसिक स्तरानुरूप, बच्चों का दिल्ली की बसावट व कुछ ऐतिहासिक स्थानों से संक्षिप्त परिचय करवाया गया है.
        इस पुस्तक ने ही मेरी रूचि को विस्तार दिया या यूँ कह लीजिये प्रेरणा या उत्प्रेरण का काम किया. फलस्वरूप मैं दिल्ली का इतिहास करीब से टटोलने निकल पड़ा !! दिल्ली ही नहीं इस पुस्तक की प्रेरणा उपरान्त कई अन्य प्रदेशों से सम्बंधित, अब तक 150 से अधिक यात्रा वृत्तांत लिख चुका हूँ..
      सोचता हूँ, देख-सुन-पढ़ कर उस दिशा में हमारे अन्दर कौतुहल उत्पन्न होता है और यही कौतुहल, प्रेरणा या उत्प्रेरण का काम करता है लेकिन दृढ इच्छा शक्ति, अथक परिश्रम व लगन ऐसे कारक हैं जो प्रेरणा को मूर्त रूप देते हैं और सम्बंधित क्षेत्र में सफलता सुनिश्चित करते हैं..


Saturday 2 April 2016

डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन



 

अद्भुत व्यक्तित्व के धनी व सदाशयता की प्रतिमूर्ति 

 डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन

                    सर्वपल्ली राधाकृष्णन तत्कालीन सोवियत संघ में भारत के राजदूत रहे.स्टालिन के हृदय में 'दार्शनिक राजदूत' के प्रति गहरा सम्मान था। स्टालिन के निमंत्रण पर राधाकृष्णन जी की मुलाकात स्टॅलिन से 5 अप्रैल, 1952 को हुई. तब राधारिष्णन जी सोवियत संघ से विदा होने वाले थे। विदा होते समय राधाकृष्णन ने स्टालिन के सिर और पीठ पर हाथ रखा। तब तानाशाह स्टालिन ने कहा था – तुम पहले व्यक्ति हो, जिसने मेरे साथ एक इंसान के रूप में व्यवहार किया हैं और मुझे अमानव अथवा दैत्य नहीं समझा है. तुम्हारे जाने से मैं दुख का अनुभव कर रहा हूँ. मैं चाहता हूँ कि तुम दीर्घायु हो. मैं ज़्यादा नहीं जीना चाहता हूँ. इस समय स्टालिन की आँखों में नमी थी. इस वाकये के छह माह बाद ही स्टालिन की मृत्यु हो गई.
              इस प्रसंग को साझा करने के पीछे यह भावना है कि क्यों न हम स्वयं में एक ऐसे सदाशयी व्यक्तित्व का निर्माण करें जो आत्मचिंतन को मजबूर कर सके और जाति, वर्ण, धर्म, क्षेत्र, भाषा व राजनीतिक मतान्तरों से ऊपर उठकर मानवता और देशहित में समर्पित हो !!