राजनीति की “ गंगा “
बेशक हम प्रत्यक्ष रूप से किसी राजनीतिक दल के प्रति अपनी प्रतिबद्धता स्वीकार न करें लेकिन वोट तो हम किसी न किसी राजनीतिक पार्टी को देते ही हैं. लिहाजा हमारे विचारों और चिंतन में उस राजनीतिक दल या विचारधारा की छाया, सावधानी बरतने के बाद भी आ ही जाती है.
रोचक बात ये है कि स्वयं को किसी राजनीतिक दल या विचारधारा से न जुड़े होने का दावा करने वाले अधिकतर लोग ही सदैव किसी राजनीतिक दल के पक्ष में खड़े दिखते हैं !!
मैं भी यह मानता हूँ कि राजनीतिक चिंतन निरर्थक नही, राजनीतिक चिंतन का अभाव, विचार स्थिरता और निरंकुशता को जन्म देता है. परन्तु सोचता हूँ कितना अच्छा और राष्ट्र हित में होता यदि हम हर अच्छे प्रयास का, दलगत राजनीति से ऊपर उठकर ..” किन्तु..परन्तु.. लेकिन “ ..आदि में न उलझकर, खुले दिल से स्वागत करते !!.. क्या हमारे पास हर कार्य का विरोध करने के अलावा कोई और मुद्दा नही ??
अक्सर देखता हूँ यदि कोई राजनीतिक दल कोई नया काम करता है तो या तो उस पर छिद्रान्वेषण, आलोचना व विरोध प्रारम्भ कर दिया जाता है और यदि समाज में अधिसंख्यक स्वीकार्यता के चलते यह संभव न हो पाता तो चुप्पी साथ ली जाती है. इस उपक्रम के पीछे सराहना न कर सकने की मनोवृत्ति साफ़ झलकती है !! क्योंकि कुछ लोगों की संकीर्ण मानसिकता यह कहती है कि सराहना करने से सम्बंधित दल को फायदा हो सकता है.. और यदि सराहना करने की मजबूरी आन ही पड़ी !! तो,शब्दों को इस प्रकार साध कर सराहना की जाती है कि कहीं सम्बंधित दल की अच्छे कार्य के लिए सीधे-सीधे प्रशंसा किये जाने का संकेत समाज में न पहुँच जाए !! ऐसा करने पर उनको जनाधार सिमटने व अपनी विचारधारा के पराभाव का भय सालता है !!
यदि आप उनकी दलगत चट्टान से निकली राजनीतिक “ गंगा “ में नहायेंगे तो ही पवित्र हैं !! परन्तु उनकी ‘ गंगा “ से हटकर, यदि आप गंगोत्री से निकलने वाली गंगा में नहा लिए तो आपकी पवित्रता पर संशय किया जा सकता है !! आजकल कई राजनीतिक दलों ने यह चिंतन अपनाया हुआ है. जब दूसरा दल कुछ करे तो पानी पी-पी कर उसका विरोध तय है लेकिन जब वो स्वयं करते हैं तो उसी बात को सही ठहराने के लिए उन दलों के प्रवक्ताओं के पास एकाधित तर्क तैयार मिलते हैं. यहाँ “ उसकी साडी मेरी साडी से अधिक सफेद कैसे !! वाला भाव, नकारात्मक रूप में स्पष्ट परिलक्षित होता है ।
गंगा एक ही है जो कि सास्वत सत्य है उसका प्रवाह हम बाँध बनाकर कुछ समय तक रोकने का प्रयास तो कर सकते हैं लेकिन चिरकाल तक ऐसा कर पाना संभव नही !! क्या ही अच्छा होता हम अच्छे कार्यों का खुले दिल से स्वागत और गलत कार्यों का सशक्त विरोध करने की मनोवृत्ति को विकसित व प्रदर्शित कर पाते.. अर्थात अपने खोटे सिक्के को “ खोटा “ कह सकने की हिम्मत जुटा पाते !! काश !!हम दलगत निष्ठाओं से ऊपर उठ पाते तो शायद सही और गलत का वास्तविक मूल्यांकन हो पाता !! जो राष्ट्र की तरक्की में सहायक होता !! ^^ विजय
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