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Wednesday 20 April 2016

चल पड़े जिधर दो डग....




 चल पड़े जिधर दो डग,मग में चले कोटि पग उसी ओर : युगावतार महात्मा गाँधी

             आपका कोई भी काम महत्त्वहीन हो सकता है पर महत्त्वपूर्ण यह है कि आप कुछ करें.
                                                                  ... महात्मा गांधी
                    मोहनदास एक औसत विद्यार्थी थे, हालाँकि उन्होंने यदा-कदा पुरस्कार और छात्रवृत्तियाँ भी जीतीं। एक सत्रांत-परीक्षा के परिणाम में - अंग्रेज़ी में अच्छा, अंकगणित में ठीक-ठाक भूगोल में ख़राब, चाल-चलन बहुत अच्छा, लिखावट ख़राब की टिप्पणी की गई थी। वह पढ़ाई व खेल, दोनों में ही प्रखर नहीं थे। बीमार पिता की सेवा करना, घरेलू कामों में माँ का हाथ बंटाना और समय मिलने पर दूर तक अकेले सैर पर निकलना, उन्हें पसंद था। उन्हीं के शब्दों में उन्होंने 'बड़ों की आज्ञा का पालन करना सीखा, उनमें मीनमेख निकालना नहीं।' वह किशोरावस्था के विद्रोही दौर से भी गुज़रे, जिसमें गुप्त नास्तिकवाद, छोटी-मोटी चोरियाँ, छिपकर धूम्रपान और वैष्णव परिवार में जन्मे किसी लड़के के लिए सबसे ज़्यादा चौंकाने वाली बात - माँस खाना शामिल था. हर ऐसी नादानी के बाद वह स्वयं वादा करते 'फिर कभी ऐसा नहीं करूँगा' और अपने वादे पर अटल रहते। उनमें आत्मसुधार की लौ जलती रहती थी, भगवदगीता को उन्होंने सबसे पहले सर एडविन आर्नोल्ड के अंग्रेज़ी अनुवाद में पढ़ा.
                  बंबई न्यायालय में पहली ही बहस में वह नाकाम रहे। यहाँ तक की 'बंबई उच्च न्यायालय' में अल्पकालिक शिक्षक के पद के लिए भी उन्हें अस्वीकार कर दिया गया। इसलिए वह राजकोट लौटकर मुक़दमा करने वालों के लिए अर्ज़ी लिखने जैसे छोटे कामों के ज़रिये रोज़ी-रोटी कमाने लगे।
                डरबन न्यायालय में यूरोपीय मजिस्ट्रेट ने उन्हें पगड़ी उतारने के लिए कहा, उन्होंने इन्कार कर दिया और न्यायालय से बाहर चले गए। कुछ दिनों के बाद प्रिटोरिया जाते समय उन्हें रेलवे के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से बाहर फेंक दिया गया और उन्होंने स्टेशन पर ठिठुरते हुए रात बिताई। यात्रा के अगले चरण में उन्हें एक घोड़ागाड़ी के चालक से पिटना पड़ा,
              जुलाई 1914 में दक्षिण अफ़्रीका से गांधी के भारत प्रस्थान के बाद वहां की सरकार के प्रतिनिधि स्मट्स ने एक मित्र को लिखा था, 'संत ने हमारी भूमि से विदा ले ली है, आशा है सदा के लिए' ; 25 वर्ष के बाद उन्होंने लिखा, 'ऐसे व्यक्ति का विरोधी होना मेरी नियति थी, जिनके लिए तब भी मेरे मन में बहुत सम्मान था' ,
               उपरोक्त वर्णित कुछ घटनाओं से स्वयं में निरंतर आत्म सुधार और हर घटना का गहराई से चिंतन और प्रभावी प्रतिक्रिया ने एक सामान्य व्यक्ति को व्यक्तित्व की बुलंदियों तक पहुंचा दिया . हम भी इस महान व्यक्तित्व से कुछ सीख पायें ...ऐसी अभिलाषा निरंतर बनी रहेगी .


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