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Wednesday 20 April 2016

निरंतर नकारात्मक चिंतन व छिद्रान्वेषण : उचित या अनुचित !!



निरंतर नकारात्मक चिंतन व छिद्रान्वेषण : उचित या अनुचित !!

        कई बार समाज में कुछ लोग अपने विचार, मूल्यांकन व मन:स्थिति को सर्वोत्तम मानकर उसके विपरीत घट रहे घटना क्रम या माहौल ( बेशक वह उचित ही क्यों न हो ) से तालमेल बिठाने में, संचित पूर्वाग्रह या अहंकार वश, स्वयं को असहज महसूस करते हैं या जानकर ऐसा नही करना चाहते !!       
        फलस्वरूप ऐसे लोग निराशा का शिकार हो छिद्रान्वेषण, विचार विष वमन जैसे कुंठित कृत्यों से संलग्न होकर, सम प्रवृत्ति के साथियों को अपनी ओर आकृष्ट करने का प्रयास करते हैं, इस कार्य में उनको कुछ हद तक कामयाबी भी मिल जाती है लेकिन वह काल निबद्ध होती है.. व्यक्तिगत मन:स्थिति को संतुष्ट करने के क्रम में, समाज में अवसाद निर्मित करने का उनका कृत्य निंदनीय व घृणित चेष्टा अवश्य है, जो कि भावी पीढ़ी में स्वस्थ संस्कारों का सम्प्रेषण या हस्तांतरण नही करता !!  
      जिस लकड़ी को हम जलाने का प्रयास करते हैं उसकी ज्वाला ताप वृद्धि के साथ हमारी तरफ ही बढती है जब ज्वाला हमारे शरीर के बहुत करीब पहुंच हमें हानि पहुँचाने की स्थिति में आ जाती है तो    अफरा-तफरी में स्वयं को सुरक्षित करने हेतु हमे उस लकड़ी को त्यागना होता है उस समय हम जलती लकड़ी को फेंकने के उचित-अनुचित स्थान का निर्णय कर पाने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं, फलस्वरूप असावधानी, दावानल में भी परिवर्तित हो सकती है !!
          व्यक्तिगत सोच का देशकाल परिस्थितियों से सकारात्मक व उचित तालमेल बिठाना नितांत आवश्यक है.. निरंतर नकारात्मक चिंतन या छिद्रान्वेषण न व्यक्ति हित में है न समाज हित में और न ही राष्ट्र हित में ... ^^ विजय 


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