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Saturday 16 July 2016

पावस



पावस

घुमड़ - घुमड़ घन नभ में छाए
कड़-कड़-कड़ बिजली संग लाए
  दिन में हो गया घुप्प अँधेरा !
देख - देख जी सबका घबराए.
अब बरसे तब बरसे बादल
लहर-लहर नभ हिचकोले खाए
देखो उधर से आई बारिश
दौड़-दौड़ सब छत नीचे आए.
झम-झम झम बारिश आई
फुदक - फुदक दादुर टर्राएं
   पावस आयो ! पावस आयो !!
झूम-झूम सब मिलकर गाएं.
इंद्र धनुष की छटा निराली
वन मयूर नाचे इतराएं
बरसे मेघा सावन आया
  बच्चे कागज नाव चलाएं..

विजय जयाड़ा 16.07.16

           आज सुबह घने बादलों के कारण अँधेरे और बारिश का दौर चल रहा था. कक्षा में बच्चे बहुत कम आये. सामान्य पठन-पाठन के बाद सोचा ! क्यों न बच्चों के साथ खेल-खेल में मौसम के अनुकूल कुछ सृजन किया जाय.. अध्यापक की चित्त संतुष्टि व प्रसन्नता शिक्षार्थियों में निहित प्रतिभा विकास में ही होती है.
           भाषा विकास के क्रम में बच्चों के शब्द कोष मे चंद नए शब्दो, पावस, जी, घन, मेघ, हिचकोले, नभ, दादुर, मयूर, छटा का इजाफा करने की चाहत में एक प्रयास .. " पावस "

हो उजास जीवन निरंतर




हो उजास जीवन निरंतर
तन भी व्याधि मुक्त हो
मरु अगर हो जाए धरा तो
      आप उपवन मध्य हो ... 2

खार मुक्त हो पथ स्वयं
ठोकर न लगने पाए कहीं
शतायु हो जीवन सफल
       कामना मेरे मन की यही ... 2

दिवस उत्सव पूर्ण हो नित
सकल मनोरथ सिद्ध हो
अंगना बरसे खुशियाँ निस दिन
       घर धन – धान्य पूर्ण हो .... 2
.. विजय जयाड़ा 15.07.2016
       आज, बीज को वट वृक्ष का रूप दे सकने का हुनर रखने वाली, कुशल मार्गदर्शी व प्रेरक व्यक्तित्व, हमारे विद्यालय की प्रधानाचार्या, श्रीमती कमलेश कुमारी जी का सेवाकाल के अंतर्गत विद्यालय परिवार के मध्य मनाया जाना वाला अंतिम जन्म दिवस था.
      आदरणीया श्रीमती कमलेश जी के बारे में संक्षिप्त में इतना ही कहूँगा कि मेरे व्यक्तिव में बहुत कमियाँ है लेकिन अगर आपको कुछ अच्छा जान पड़ता है तो उसका काफी कुछ श्रेय मैं नि:संकोच आदरणीया श्रीमती कमलेश जी को देना चाहूँगा.
      ऐसे प्रेरक व विद्वान् व्यक्तित्व को भला व्यक्तिगत रूप से मैं उपहार में क्या दे सकता था.! मैनें मनोद्गारों को त्वरित चंद पंक्तियों में पिरोकर भेंट करना ही उचित समझा ..

Wednesday 6 July 2016

क्या हुआ गर मिट गये अपने वतन के वास्ते।



क्या हुआ गर मिट गये अपने वतन के वास्ते।
बुलबुलें कुर्बान होती हैं चमन के वास्ते॥
......पंडित राम प्रसाद बिस्मिल
 
       आज सुबह नहाकर जब घर से बाहर पार्क की रेलिंग पर गीला तौलिया फैला रहा था तो स्वतंत्रता संग्राम में देशभक्ति का जज्बा उत्पन्न करने वाली कई गजलों में पंडित राम प्रसाद बिस्मिल द्वारा प्रतीक रूप में प्रयोग किये गए ' बुलबुल ' के जोड़े और उनके बच्चे को घर के सामने लगाये गए पेड़ों में फैली मधुमालती की बेल के झुरमुट में छिपा देखा..
      दोपहर स्कूल से घर आया तो बच्चा वहीँ बैठा था .. शाम को देखा फिर वहीँ !!
      इस दौरान नर और मादा बुलबुल बारी-बारी उसके लिए दाना लेकर आते तो शान्त बैठा बच्चा खुशी में बहुत तेज पंख फड़-फड़ाते हुए चैं-चैं करके ख़ुशी का इज़हार करता. ममता, वात्सल्य और अनुशासन का अनुपम नजारा देखते ही बनता था.
       इस दौरान मैं बाहर निकलकर देखता तो डरने की बजाय बुलबुल फुर्र से करीब आकर पार्क की रेलिंग पर बैठकर मुझसे मुखातिब होकर चिंचियाकर अपनी बोळी में कुछ कहती .. शायद कहती होगी !!.. " मेरे बच्चे का ख्याल रखना !! " पत्नी ने बताया खिड़की में एक कौवा, बच्चे के शिकार की टोह में बैठा रहता है.. यह क्रम दिन भर लगभग बारह घंटे चला. शाम को कब बुलबुल जोड़ा अपने बच्चे को उड़ाकर ले गया ! पता न चला !! मुझे पूरा यकीन है कि कल फिर बुलबुल का जोड़ा इसी सुरक्षित जगह अपने बच्चे को लेकर आयेंगा.
       बुलबुल का बच्चा दिन भर एक ही जगह पूर्ण अनुशासन में बैठा रहा ! नींद आती तो वहीँ सो जाता लेकिन इधर-उधर जाने की जरा भी कोशिश न करता , इस पक्षी अनुशासन पर आश्चर्य हुआ !!
जब इस फ़्लैट पर आया था तो पार्क में मात्र एक छोटा सा कीकर का पेड़ था उसी की छाया में बैठकर काम करवाया. उसके बाद पूरे पार्क में सबने मिलकर खूब पेड़ लगाये. अब आलम ये है कि किसी पक्षी विहार की तरह अलग-अलग मौसम में रंग-बिरंगे पक्षी यहाँ आकर अपना बसेरा बना लेते हैं. जिनको देखना एक अलग ही आनंद देता है.
       कंक्रीट के बढ़ते जंगलों के बीच पक्षियों के आसरे के लिए प्राकृतिक वातावरण अर्थात पारिस्थितिक तंत्र का निर्माण करना वक्त का तकाजा है. अत: वृक्षारोपण जरूरी है तभी हम स्वयं को प्रकृति के बीच पा सकते हैं..साथ ही बच्चों को प्रकृति मित्र होने के संस्कार भी दे पाएंगे.. कहीं ऐसा न हो कि पक्षियों के प्रति हमारी संवेदनहीनता के कारण आने वाली पीढ़ी के लिए ये पक्षी, कहानी और किस्सों का पात्र बन कर यादों और कल्पनाओं में ही सिमट कर न रह जाएँ !!
कैमरा बेटी के पास ऋषिकेश में होने के कारण बुलबुल परिवार की दिनचर्या की तस्वीर न ले सका ...
तस्वीर साभार :गूगल


एक-दूसरे के पूरक ..



एक-दूसरे के पूरक ..

      सफ़र में चलते-चलते समूह कार्य भावना को प्रदर्शित करते इस दृश्य को देखकर मन में विचार आया कि व्यक्तिगत स्तर पर स्त्री या पुरुष कितनी भी तरक्की कर ले लेकिन यदि दोनों की व्यक्तिगत शक्ति, कौशल व निपुणता एक दूसरे पर हावी होने में व्यर्थ होने की बजाय, सम्मिलित रूप से पारिवारिक व सामाजिक चादर का ताना-बाना बनें तो पारिवारिक व सामाजिक चादर ज्यादा टिकाऊ, बेहतर व सुन्दर बन सकती है.
      स्त्री-पुरुष में व्यक्तिगत रूप से स्वस्थ प्रतिस्पर्धा तक तो उचित है लेकिन प्रतिस्पर्धा के अनुक्रम में एक दूसरे पर हावी होने की मनोदशा समाज के ताने-बाने को दीर्घावधि में विच्छिन्न करती है. संस्कार रहित समाज का निर्माण करती है. प्रकृति के संतुलन को बनाये रखने के लिए स्त्री और पुरुष के दूसरे के पूरक हैं.. प्रतिस्पर्धी नहीं !!


चलता-फिरता-बोलता इतिहास



चलता-फिरता-बोलता इतिहास ....

       अनौपचारिक क्षणों की इस तस्वीर में मेरे साथ 87 वर्षीय मेरे ससुर श्री सिंग रोप सिंह तड़ियाल जी हैं. कितनी भी व्यस्तता क्यों न हो लेकिन जरा सा भी अवसर मिलने पर किसी भी बुजुर्ग जो कि चलते-फिरते और बोलते इतिहास भी हैं, रूबरू होने का अवसर नहीं गंवाना चाहता.
      किताबों को पढ़कर ही किसी विषय पर जानकारी प्राप्त कर स्पष्ट राय बना पाना असंभव है, कुछ जानकारियाँ या तो कलमबंद नहीं हो पाती या विभिन्न कारणों से प्रकाशित नहीं की जाती ! जिससे वो धूमिल होकर विलोपित तक हो जाती हैं !! फलस्वरूप अगली पीढ़ी तक नहीं पहुँच पाती हैं.
      बुजुर्ग ऐसी ही कई जानकारियों का अलिखित पुस्तकालय होते हैं. समयांतराल में विस्मृत घटनाओं व जानकारियाँ व्यवहारिक रूप में बुजुर्गों की याददाश्त का हिस्सा होती हैं. इसलिए बुजुर्गों से संवाद के लिए वक्त निकालना बहुत आवश्यक है.
मेरे लिए मेरे स्वर्गवासी पिता जी पुराने समय की जानकारियों का अथाह व प्रमाणिक श्रोत थे. जब भी ऋषिकेश जाता हूँ तो ससुर जी से पुराने समय की घटनाओं और तत्कालीन सामाजिक ताने-बाने पर चर्चा करना नहीं भूलता.
      सोचता हूँ हमें अपने बुजुर्गों के अनुभव परिपूर्ण ओज क्षेत्र में रहकर सहज रूप में ऐतिहासिक व सांस्कृतिक थाती को संस्कारों में अगली पीढ़ी तक पहुंचाना अपना धर्म समझना चाहिए..
       यकीन कीजियेगा !! मेरी यात्रा डायरी में साक्षर व निरक्षर दोनों ही तरह के बुजुर्गो का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप में महत्वपूर्ण योगदान होता है.