विडंबना कहिये या कटु सत्य, कि हम हर जगह बहुत बड़ी-बड़ी बातें तो अवश्य करते हैं लेकिन जब उन्हीं परिस्थितियों से हमारा वास्ता पड़ता है तो हम मौन साध लेते हैं. महत्वाकांक्षी लोग मानवीय कुंठाओं का क्षेत्र वाद,जातिवाद, धर्मवाद को माध्यम बनाकर भरपूर दोहन करते हैं.
क्षणिक स्वार्थों के कारण हम अपना "स्व" तक नही विचार पाते. इन स्वार्थी तत्वों की मंशा का अहसास तब होता है जब वे हमारी भावनाओं का दोहन अपनी स्वार्थ सिद्धि में परिणित कर चुके होते हैं..उस वक्त हम स्वयं को ठगा सा महसूस करते हैं, साथ ही हम उस वक्त स्वयं को विरोध करने की स्थिति में भी नहीं पाते हैं .. स्वतंत्र व निष्पक्ष चिंतन इस तरह के लोगों पर लगाम लगाने का एक मात्र साधन है.
राजनीतिक दलों और समाज में इस तरह के अधिसंख्यक तत्व उपस्थित हैं जिनसे स्वयं को बचा पाना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है.
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