यादें ... जब हम हार के बावजूद भी जीत गए ..
बात 1989 की है उस सत्र में मैं पी. जी. कॉलेज उत्तरकाशी क्रिकेट टीम का कप्तान था. स्थानीय टूर्नामेंट का सेमी फाइनल मैच चल रहा था. मैं टीम का उद्घाटक बल्लेबाज हुआ करता था. प्रतिद्वंदी टीम ने उत्तरकाशी से बाहर के खिलाडी बुलाकर अपनी टीम को मजबूत कर दिया था.
अम्पायर के कुछ गलत निर्णयों के कारण हमारे चार विकेट गिर गए.जिससे हमारी स्थिति कमजोर होने लगी ! बल्लेबाजी के एक सिरे को मैं थामे हुए था. हद तब हो गयी जब पांचवे विकेट के रूप में अम्पायर ने मुझे भी गलत निर्णय देकर आउट करार दे दिया. इस तरह बची-खुची आस भी समाप्त हो गयी ! तब मैं बहुत शांत और संकोची स्वभाव का हुआ करता था लेकिन पहली बार अम्पायर के निर्णय से मेरे असंतोष जताने पर, पहले से ही असंतुष्ट दर्शकों की भावना को बल मिल गया जिससे अम्पायरों और आयोजकों के प्रति उनका रोष अब आक्रोश में बदल गया.
सारे दर्शक क्रुद्ध होकर मैदान में आ धमके !! मैच रुक गया !! अब ये स्थिति मेरे लिए धर्मसंकट की स्थिति थी ! क्योंकि खिलाडी होने के साथ-साथ मैं टीम का कप्तान भी था !! मानवीय भावनाओं के सैलाब में किसी भी स्थिति में खेल भावना को बचाए रखना मेरा दायित्व था.
मेरी टीम और दर्शक, मैदान में अम्पायर के निर्णयों के विरोध में डटे हुए थे. टीम अम्पायर के निर्णयों पर पुनर्विचार किये बिना आगे खेलने को तैयार ही न थी..
सभी इस बात पर अड़े थे की अम्पायर बदले जाएँ और मैच पुन: नए सिरे से प्रारंभ किया जाय. मैंने बेकाबू होती स्थिति की गंभीरता को देखते हुए आयोजकों से उस दिन शेष मैच स्थगित कर देने आग्रह किया.. दो दिन बाद, नए सिरे से नहीं ! बल्कि जहाँ मैच रोक दिया गया था उसी स्थिति से उन्हीं अम्पायरों के साथ शुरू करवाने पर सबको राजी किया.
बेशक ! प्रतिष्ठा के विपरीत गलत निर्णयों के चलते हम सेमी फाइनल मैच हार गए लेकिन खेल भावना और खेल की आत्मा जीवित रही. इस कारण ये मैच आज भी मेरी स्मृतियों में ज्यों का त्यों सुरक्षित है।