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Tuesday, 28 July 2015

महा मानव को अंतिम सलाम !!

महा मानव को अंतिम सलाम !!

बड़े शौक से सुन रहा था जमाना,
  तुम ही सो गए दास्ताँ कहते-कहते !!

जाति, धर्म, पंथ, भाषा व प्रदेश की सीमित सीमाओं से कही ऊपर 
उठकर पूरे भारत का जन-मानस उदास है !! गमगीन है !!
कोई धर्म गुरु या विद्वान् मुझे सिर्फ इतना बता दे !!!

 कि कलाम साहब का जाति, धर्म,पंथ,भाषा व प्रदेश क्या था !!   और भी खूबसूरत और भी ऊंचा
   इस देश का नाम हो जाए !!
  अगर हर हिन्दू विवेकानंद और 

  हर मुस्लिम कलाम हो जाए !!


Thursday, 23 July 2015

बच्चों में पढने, लिखने व याद करने की दिशा में रूचि उत्पन्न करने हेतु एक पहल ---

 बाल कविता के माध्यम से पढने, लिखने व याद करने की दिशा में रूचि उत्पन्न करने हेतु एक पहल

             कहानी और कविता बच्चों. की जन्मजात रूचि के विषय हैं, बच्चों को पंचतंत्र में पशु-पक्षियों के माध्यम से शिक्षा प्रदान करने का प्रयास किया गया है.
            पुराने समय में दादी, नानी और मां बच्चों को कहानियां व लोरियों के रूप में कविता सुनाती थी। कहानियाँ में ही बच्चे, कल्पना की उड़ान भरकर परियों के देश में पहुँच जाते थे, और लोरियों का सुखद आनंद पाकर सो जाते थे ये कहानियां और कविताएँ सत्य और यथार्थ से परिचय करवाने के साथ-साथ, साहस, बलिदान, त्याम और परिश्रम जैसे गुण, बच्चों में विकसित करतीं थीं.
बच्चे का सबसे अधिक समय मां के साथ गुजरता है, मां ही उसे प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से साहित्य तथा शिक्षा संबंधी जानकारी देती है लेकिन बदले भौतिकवादी परिदृश्य में एकल परिवार संस्कृति पनपने लगी हैं. परिवारों में बुजुर्गों नहीं दिखाई देते !! माता-पिता, परिवार की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में, चाहकर भी, बच्चों को व्यक्तिगत समय देने में असमर्थ से लगते हैं !!
      ऐसी स्थिति में विपरीत शैक्षिक परिवेश,कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि के संसाधन विहीन, परिवारों के बच्चों के उज्जवल भविष्य की एकमात्र आशा किरण, सरकारी विद्यालय ही हैं..
     दरअसल, बाल साहित्य का उद्देश्यव बाल पाठकों का मनोरंजन करना ही नहीं अपितु उन्हें आज के जीवन की सच्चाइयों से परिचित कराना भी होना चाहिए. उसी के अनुरुप उनका चरित्र निर्माण होगा। कहानियों व कविताओं के माध्यम  से हम बच्चों का चरित्र निर्माण कर सकते हैं तभी ये बच्चें जीवन के संघर्षों से जूझकर, ईमानदारी से देश की विभिन्न क्षेत्रो में सेवा कर सकेंगे.
बाल-मनोविज्ञान को दृष्टिगत रखकर लिखी गयी कहानियों व कविताओं से बाल मानस पटल पर उतर कर, बच्चों के निर्मल मन पर प्रभाव डालकर, संस्कार, समर्पण, सदभावना और भारतीय संस्कृति के तत्वों को स्थायी रूप से बिठाया जा सकता है.
           अब तस्वीर पर चर्चा की जाय. दरअसल आज बच्चों से कविता न सुन सका तो बच्चे सुनाने की जिद करने लगे. छुट्टी का समय हो चला था तो कुछ बच्चे अपने अभिभावकों के साथ घर जा चुके थे. तो मैंने बच्चों का मन रखने के लिए कहा, “ जिन बच्चों को कवितायेँ याद हो गयी हैं वो आगे आ जाएँ !” बहुत ही सुखद आश्चर्य परिपूर्ण अनुभव रहा, जब इस स्तर में चौथी कक्षा में पहुंचे इन उपस्थित 26 बच्चों में से 23 बच्चे उत्सुकता से दौड़ते हुए, कविता सुनाने आगे आ गए !! प्रसन्नता अविभूत क्षणों में बच्चों की तस्वीर लेने का लोभ संवरण न कर सका..
             इस सुखद आश्चर्य की पृष्ठभूमि में वे बाल कवितायें हैं जिनको मैं विभाग द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम पढ़ाने के पश्चात, बचे समय में इन बच्चों के सहयोग से कक्षा-कक्ष में ही लिखकर आप साथियों तक फेसबुक के माध्यम से पहुंचाता हूँ.इन कविताओं में बच्चों का सहयोग लिया जाता है, जिस कारण वे इन कविताओं में खुद को भी अनुभूत करते हैं.और याद करने में अतिरिक्त रूचि लेते हैं. साथियों, आप इन बच्चों का उत्साहवर्धन अवश्य कीजियेगा. कल इन बच्चों को आपके उत्साहवर्धन से अवगत करवाऊंगा. इससे इन बच्चों का उत्साह और अधिक बढेगा..
             कविता के माध्यम से बच्चों का विभिन्न दिशाओं में मानसिक विकास तो होता ही है लेकिन प्रत्यक्षत: मुझे बच्चों में पढने, लिखने व याद करने में रूचि उत्पन्न करने के दिशा में, कविता विधा का उपयोग कम समय खर्चीला व बहुत प्रभावकारी प्रयोग अनुभूत हुआ.
        स्वलिखित कविता याद करवाने के पीछे मेरा उद्देश्य , बच्चों में सृजन के प्रति अभिरुचि उत्पन्न करने के साथ-साथ शिक्षण में आने वाली सबसे बड़ी समस्या, पढने, लिखने व याद करने की दिशा में रूचि उत्पन्न करना है ..



Saturday, 18 July 2015

खेल संस्मरण

खेल संस्मरण

         आज घर में पड़ी ये पुरानी हॉकी स्टिक दिखी तो सहसा उत्तरकाशी,कॉलेज के दिनों की याद ताजा हो आई, तब क्रिकेट खिलाडी के तौर पर मेरी ठीक-ठाक पहचान बनी हुई थी लेकिन जब हमारे कोच आदरणीय प्रो. जगदीश बिष्ट जी ने मुझे हॉकी में भी शामिल होने को कहा तो मैं परेशान हो गया क्योंकि मुझे हॉकी का ककहरा भी नहीं आता था,साथ ही निक्कर पहनने में बहुत संकोच होता था.
खैर ! मैंने अनुशासित खिलाडी की तरह भारी मन से बात मान ली. क्रिकेट में विकेटकीपर होने के कारण मुझे हॉकी में गोलकीपर का स्थान दिया गया, ये मेरे लिए बहुत सुकूनदायक था क्योंकि अब मैं निक्कर की जगह ट्रैक सूट का लोवर पहन कर खेल सकता था.
          अंतर महाविद्यालय मैचों के लिए मुझे सुबह क्रिकेट और शाम को हॉकी अभ्यास में शामिल होना पड़ता था.
          एक महीना हाड तोड़ मेहनत के बाद हमारी हॉकी टीम ऋषिकेश पंहुंची, वहां एक धर्मशाला में रुके. दोपहर को पहली बार प्रतियोगिता में शामिल होने वाली हमारी अनुभवहीन टीम का मुकाबला गत कई वर्षों की चैम्पियन टीम डी.ए.वी. देहरादून से था सुबह पौड़ी की टीम वापस आई .. तो जानकारी मिली की हार गयी है .. लेकिन गोलकीपर होने के नाते मेरी उत्सुकता गोल संख्या के अंतर जानने में अधिक थी, पता चला 0-19 स्कोर रहा.!!  ये सुनकर तो मेरा सारा हौसला पस्त हो गया !! क्योंकि पौड़ी में लम्बे समय से हॉकी का अच्छा माहौल है.और उसका ये हाल !
          खैर, मैंने अपने हतोत्साहित मनोभाव प्रकट नहीं होने दिए क्योंकि टीम को मुझ पर बहुत भरोसा था. पूरी टीम आई.डी.पी.एल. मैच खेलने समय पर पहुँच गयी. दो-दो कोच और पूर्ण साजो-सामान से सज्जित डी.ए.वी टीम की किसी राष्ट्रीय टीम से कम नहीं लग रही थी .. और हमारी टीम....... !! परिदृश्य ऐसा था जैसे गाँव देहात की टीम का किसी विदेशी टीम से मुकाबला होना है !
         बहरहाल मुकाबला प्रारम्भ हुआ, हमारी टीम ने शुरू में 2-3 अच्छे मूव बनाये, मुझे संतोष हुआ. लेकिन उसके बाद डी.ए.वी. ने आक्रमणों की झड़ी लगा दी वो इतना तेज मूव बनाते थे कि हमारे खिलाडी कहीं पीछे छूट जाते थे ! फिर वो निश्चिंत होकर हमारे गोलपोस्ट पर निशाना साधते थे. मुझे अब तक अच्छी तरह याद है कि मैंने बिना हेलमेट और चेस्ट गार्ड के, खिलाडी से अधिक एक " योद्धा " की तरह कम से कम बीस सीधे गोल बचाए थे.
           ये सब देखकर हमारे खिलाडियों का हौसला अवश्य बढ़ता था. दूसरे हाफ के पूर्वार्ध तक स्कोर था, 0-0.. इतने में टीम के सबसे अनुभवी और काबिल खिलाडी से चूक हो गयी जीरो एंगल ( कार्नर ) से किये गए तेज रफ़्तार हिट को रोकने के प्रयास में वो ठीक मेरे सामने आ गया लेकिन अपनी स्टिक से गेंद को न रोक सका ! ठीक सामने अपने खिलाडी के होने के कारण गेंद मुझे नहीं दिखाई दी, गेंद पर नजर रखने की हड़बड़ाहट में मेरे और गोल पोस्ट के मध्य मुश्किल से एक फुट की दूरी बन गई जिसको भेदती हुई तेज गेंद सीधे गोल में पहुँच गयी और हम अनुभवहीन, चैम्पियन टीम से अंत में 0-1 से सम्मान जनक रूप से मैच हार गए.
         हार से निराश जरूर था लेकिन अपने प्रदर्शन से मैं संतुष्ट था .. मैच समाप्त हुआ.. दौड़कर मैच रेफरी ने मेरी पीठ थपथपाई, डी.ए.वी टीम के सभी खिलाडियों ने मेरे पास आकर, मेरा हौसला बढाने हेतु मुझसे हाथ मिलाया.
       पहला मैच हारने के बाद भी मेरा चयन विश्व विद्यालय की टीम में कर लिया गया जो कि आश्चर्यजनक था ! क्योंकि परम्परानुसार फाइनल में पहुँचने वाली टीमों के ही दोनों गोलकीपर चुने जाते हैं.    
        हालांकि इतना लम्बा संस्मरण बहुत कम साथी ही पढेंगे लेकिन सोचता हूँ कि मेरे मजबूत गोल रक्षण के बावजूद, सबसे अनुभवी व काबिल खिलाडी की जरा सी असफलता और मेरी जरा सी गलती से गेंद गोल पोस्ट में जा लगी जिससे विपक्षी टीम विजेता बन बैठी !!मुझे तो मान मिल गया लेकिन साथी खिलाडियों का परिश्रम तो निष्फल ही गया !!
        देश के सम्बन्ध में भी यही महसूस करता हूँ कि सामजिक,आर्थिक व सामरिक किसी भी क्षेत्र में अनजाने में भी ऐसाी कोई कमी न रह जाए जिसका शत्रु पक्ष लाभ उठा कर अपने घिनौने मकसद में कामयाब हो सकें.... 12.06.15



 

Tuesday, 14 July 2015

संस्कारों में स्वच्छता भाव हस्तांतरण : एक मंथन

संस्कारों में स्वच्छता भाव हस्तांतरण : एक मंथन


                                         आदर्श जिए जाते हैं और गढ़े जाते हैं स्वयं से,
                                मिशाल कायम नहीं होती दूसरों को बताने और सुनाने से...

                                                              .. विजय जयाड़ा
       बच्चे को स्वच्छता के संस्कार, सर्वप्रथम घर से फिर परिवेश से तदोपरांत विद्यालय में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्राप्त होते हैं. इस सम्बन्ध में माता-पिता,अध्यापक और स्थानीय परिवेश की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. परिवेश को एकाएक परिवर्तित करना तो अपने बूते की बात नहीं लेकिन अध्यापक के रूप विद्यालय में संस्कार दिए जा सकते हैं, साथ ही माता-पिता को भी इस सम्बन्ध में प्रोत्साहित किया जा सकता है, जिससे बच्चे में घर से ही स्वच्छता के प्रति सकारात्मक भाव उत्पन्न हो सकें..
       हम विदेशी संस्कृति के फूहड़पन की नक़ल तो खूब करते हैं लेकिन उनकी राष्ट्र को समर्पित दिनचर्या को समझने का प्रयास नहीं करते !! जापान निवासी जब पालित कुत्ते को घुमाने ले जाते हैं तो कुत्ते द्वारा की गयी गन्दगी उठाने के लिए अपने साथ एक थैली और गन्दगी को जमीन से उठाने के लिए आवश्यक सामान अनिवार्य रूप से साथ ले जाते हैं
       विद्यालय में अध्यापक का इस दिशा में स्वयं का आचरण व व्यवहार , बच्चों के लिए प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से मार्गदर्शी व संस्कारप्रद होता है.
       हमारे विद्यालय के परिश्रमी सफाई कर्मचारी को पूरे समय विद्यालय के बड़े परिसर व बड़े भवन की सफाई करने से फुर्सत नहीं मिल पाती . व्यवस्था ये भी है कि इस तरह के सफाई कार्य, बाहर से किसी को बुलाकर उचित मजदूरी देकर करवा लिए जाएँ.
       लेकिन यदि बच्चों को संस्कार देने हैं तो स्वयं भी इस दिशा में कुछ पहल की जा सकती है.. इससे बच्चों में अप्रत्यक्ष रूप से श्रम के प्रति निष्ठां व सम्मान का भाव भी जागृत होता है.
       अब आप निश्चित तौर पर विचार कर रहे होंगे कि अध्यापक का काम पढ़ाना होता है, साफ़-सफाई करना नहीं ! तो साथियों, मध्यावकाश के दौरान व जब बच्चे लाइब्रेरी कक्ष में दूसरी अध्यापिका के पास चले जाते हैं उस समयांतराल का सदुपयोग कर मैंने अपने कक्षा-कक्ष की टाइलें थोडा-थोडा कर के चार दिन में चमका दी ..
       आखिर मुझे ही तो इस कक्षा कक्ष में बच्चों के साथ दिन भर अध्यापन करना होता है ..
        केवल व्यवस्था को उलाहना देकर इतिश्री कर देना भी उचित नहीं “ अपना हाथ जगन्नाथ “ और आत्मसंतोष के साथ " एक पंथ कई काज " .. भी हो जाते हैं..
सरकार काफी तनख्वाह देती है यदि अपने पेशे से हटकर कुछ अतिरिक्त कार्य भी कर लिया जाय तो ये स्वयं के लिए संतोषप्रद तो होगा ही साथी आत्मविश्वास भी बढेगा ..