खुदी को कर कर बुलंद इतना ..... !!
सलाम .....प्रोफ़ेसर देसाई साहब
हम बातें तो बहुत बड़ी-बड़ी कर लेते हैं, दूसरों के कार्यों पर खूब
टीका-टिप्पणी कर लेते हैं ..लेकिन...!! स्वयं अपने परिवार तक ही सीमित रह
जाते हैं !! . समाज में ऐसे कई प्रेरणादायी व्यक्तित्व हैं जो बिना
प्रसिद्धि की चाह में सहज और सहृदय भाव से बिना शोर-गुल
व दिखावे के ,समाज को नयी दिशा व दशा प्रदान कर रहे हैं, वे किसी सरकारी
सहायता के मोहताज नहीं ..न ही उनको किसी से कोई शिकायत है .. कर्म और सेवा
ही उनके जीवन का उद्देश्य है
51 वर्षीय प्रो. संदीप देसाई, गरीब
बच्चों के लिए एक गत्ते का डिब्बा लेकर 'भीख मांगकर' स्कूल बनवाते हैं।
ट्रेन के डिब्बे में चढ़कर पहले मराठी में कहते हैं - 'विद्या दान
सर्वश्रेष्ठ दान आहे। हा दान द्या आणि निर्धन बालकांची मदद करा।' फिर इसी
बात को हिंदी और अंग्रेजी में दोहराते हैं ..
फिर विस्तार से कहते हैं
, 'आप सब पढ़े-लिखे हैं। पढ़ाई का महत्व जानते हैं। पर बहुत से बच्चों के
पास पढ़ने की सुविधा और साधन नहीं है। न ही कभी हो सकते हैं। उन्हें पढ़ने
में आप मदद कर सकते हैं। आप समर्थ हैं सर, इसलिए आपको यह नेक काम करना ही
चाहिए।'ये हैं प्रोफेसर संदीप देसाई। चमत्कृत कर देने वाली शैली में
तीन-चार मिनट बोलकर, सबके आगे डिब्बा घुमाना शुरू कर देते हैं । एक रुपये
के सिक्के से लेकर 100 रुपये के नोट तक उस डिब्बे में गिरने लगे। हर यात्री
द्वारा डिब्बे में कुछ डालने के बाद देसाई अपनी दाईं हथेली अपने दिल पर
रखकर थोड़ा झुकते और मुस्कराकर कहते, 'थैंक यू सर, गॉड ब्लैस यू.'दो स्टेशन
के बाद वे फिर अगले डिब्बे में चढ़ जाते हैं । कुछ यात्री उनकी प्रशंसा के
पुल बांधने लगते हैं । एक युवक कहता है , 'ये अंकल जब भी ट्रेन में मिलते
हैं, तो मैं अपनी पॉकेट मनी से बचाये 50 रुपये इन्हें दे देता हूं।'
यात्रियों में कई प्रो.देसाई को जानते थे. वे गोरेगांव में रहते हैं। पेशे
से इंजिनियर हैं। एस. पी. जैन इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट एंड रिसर्च में
प्रोफेसर थे। 1997 में वहां से नौकरी छोड़कर अंग्रेजी माध्यम के एक स्कूल
में पढ़ाने लगे। इसमें गोरेगांव की झोपड़ियों के बच्चे पढ़ते थे। वहां
पढ़ाते हुए उन्हें महसूस हुआ कि ये बच्चे तो फिर भी पढ़ पा रहे हैं, कितने
ही बच्चे पढ़ाई कर ही नहीं पाते। आसपास कोई स्कूल न होने के कारण। बस, उसी
दिन से उन्होंने ऐसी जगहों पर स्कूल बनाने की ठान ली। रोजी के लिए ये
इधर-उधर कुछ काम करते रहे। 2005 में उन्होंने झोपड़पट्टी के बच्चों के लिए
'श्लोक' स्कूल बनाया। फिर रत्नागिरी में गरीब ग्रामीण के लिए एक स्कूल
बनाया। जब उसमें पैसे की कमी आयी, तो उन्होंने ट्रेन में भीख मांगना शरू कर
दिया।
वे छह घंटे गोरेगांव से चर्चगेट तक लोकल ट्रेन में सफर करके
भीख मांगने लगे। इस तरह वे 3000 रुपये रोज इकट्ठे करने लगे। पांच महीने में
उन्होंने चार लाख रुपये एकत्र कर लिए। अगले चार महीने में दूसरा स्कूल भी
शुरू हो गया। देसाई वहीं नहीं रुके। उनकी योजना ऐसे दर्जनों स्कूल बनाने की
है। इसलिए वे आज भी रोज ट्रेनों में भीख मांगते हैं। रोज जितना पैसा मिलता
है, रात को उसका हिसाब लिखकर सोते हैं और अगली सुबह पैसा बैंक में जमा कर
देते हैं। अभी उन्हें दर्जनों स्कूल जो बनवाने हैं।
अभिनेता सलमान खान
ने एक दिन ट्विटर पर प्रोफेसर देसाई को सलाम किया। फिर सलमान ने उन्हें
फोन करके उनसे उनका बैंक एकाउंट नंबर लिया। उनसे वादा भी लिया कि मैं आपकी
मदद करूंगा, पर आप किसी को बताना मत। इसलिए वे सलमान द्वारा दी गई रकम के
बारे में नहीं बताते। दरअसल प्रो. देसाई की मां एक ग्रामीण स्कूल में
अध्यापिका थीं। देसाई ने बचपन से देखा था कि किस तरह गरीब बच्चे पढ़ नहीं
पाते। तभी उन्होंने ऐसे बच्चों के लिए कुछ करने का संकल्प किया था। वह
संकल्प आज वे पूरे तन-मन-धन से निभा रहे हैं।ज्ञान की ज्योति ऐसे ही जलती
है... आपके इस समर्पण युक्त ज़ज्बे को .. ... सलाम .....प्रो, देसाई साहब