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Saturday 29 August 2015

जब मेरी शिष्या .... मेरी उर्दू की प्रथम शिक्षिका बनीं !!


 जब मेरी शिष्या .... मेरी उर्दू की प्रथम शिक्षिका बनीं !!

       आज विद्यालय में मध्यावकाश हुआ तो अरीबा सहसा शिकायत भरे लहजे में बोली “ सर जी, आपने कहा था, उर्दू सीखूंगा लेकिन अभी तक सीखना शुरू नहीं किया, आज मैं आपके लिए उर्दू का, " कायदा " (वर्णमाला पुस्तक) भी लायी हूँ.”
          कुछ दिन पहले मैंने उर्दू जानने वाली छात्राओं से कहा था कि मैं भी आपसे उर्दू सीखूंगा. इतने में कौतुहल और उत्साह से परिपूर्ण अरीबा, झट से मेरे लिए पेंसिल भी ले आई और बन गई मेरी शिक्षिका !! और मैं शिक्षार्थी !! उर्दू लिखना मेरे लिए सहज न था. मैडम अरीबा तुनक कर कहती “ ओफो ! सर जी, ऐसे नहीं ..ऐसे बनाइये !! मैं कभी अक्षर बनाने में गलती करता कभी नुक्ता लगाना भूल जाता !! तो मैडम अरीबा,अपने दोनों हाथ माथे पर रख स्वयं पर झुंझलाती !!
मध्यावकाश का समय समाप्त हो गया तो कहने लगी, “ कल मैं आपके लिए दूसरी किताब लाऊंगी उससे सीखने में आपको आसानी होगी”.
          खैर !! आज का सबक पूरा हुआ. प्रसन्नता भी हुई और बहुत आनंद भी आया क्योंकि आज मेरी ही छात्रा मेरी उर्दू की प्रथम शिक्षिका के रूप में थी. इस प्रक्रिया से अरीबा मैं आत्मविश्वास उत्पन्न होगा और स्वयं को नि:संकोच प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने का गुण भी विकसित होगा..
         मेरे विचार से ज्ञान जिस किसी भी स्रोत से आसानी से मिल जाय उसे लेने में संकोच या देरी करना उचित नहीं. ज्ञान किसी उम्र विशेष का मोहताज या पैरोकार नहीं और न ही ज्ञान की कोई सीमा है ..
        यह भी कहना चाहूँगा, प्रकृति सबसे बड़ा गुरु है और प्रकृति का हर सृजन, प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से ज्ञान देता है और ज्ञान प्रदान करने की क्षमता रखता है..
 
 
 
 


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