चलता - फिरता - बोलता इतिहास : हमारे बुजुर्ग
तेज रफ़्तार जीवन ने मनुष्य की दिनचर्या बदल कर रख दी है. एक समय था जब बच्चे घर के बुजुर्गों के इर्द-गिर्द ही रहा करते थे, उनसे कहानी- किस्सों व व्यवहार से जाने-अनजाने में समृद्ध संस्कार प्राप्त करते थे लेकिन आज, मजबूरी कहिये या स्वच्छंदता में हस्तक्षेप बर्दाश्त न करने की मानसिकता के कारण एकल परिवार संस्कृति विकसित हुई है. बच्चे बुजुर्गों से दूर होते जा रहे हैं. इस क्रम में अपनी सभ्यता,संस्कृति व इतिहास से दूरियां बन जाना स्वाभाविक सी बात है !! खैर इस सम्बन्ध में फिर कभी चर्चा करूँगा ..
यहाँ यह कहना चाहता हूँ कि हमारे बुजुर्ग, इतिहास की चलती - फिरती - बोलती पुस्तकें, गवाह और संस्कृति के संवाहक हैं. परम्परिक शिक्षा के अभाव में, बेशक उनके पास तथ्यपूर्ण जानकारी न हो लेकिन उनसे प्राप्त सांकेतिक जानकारी व अनुभवजनित विचार, विषय सापेक्ष रोचकता उत्पन्न करती है जो हमें शोध की तरफ प्रेरित अवश्य करती है. जब भी ससुराल जाता हूँ तो 85 वर्षीय, ससुर जी, आदरणीय श्री सिंगरोप सिंह तड़ियाल जी के सानिध्य में रात को एक-दो घंटे अवश्य व्यतीत करता हूँ .. यह सानिध्य समय केवल पुराने समय की घटनाओं, संस्कृति, परिवेश व सामाजिक व्यवस्था पर ही केन्द्रित होता है... .जिस सफ़ेद लोई (शाल) को हमने ओढ़ा हुआ है उसे ससुर जी ने स्वयं 40 वर्ष पहले तैयार किया था।
जहाँ कहीं भी जाता हूँ बुजुर्गों से मिलने का उत्साह रहता है . बुजुर्ग रूपी बरगद की स्नेह छाँव में जिज्ञासा शांत करने का कुछ अलग ही आनंद है, साथ ही स्नेह आशीर्वाद भी प्राप्त होता है . लेकिन विडंबना ये है कि हम स्वयं को आधुनिक दिखाने की होड़ में बुजुर्गों की बातों को गुजरे जमाने की और दकियानूसी बातों की संज्ञा देकर प्रायः नज़रंदाज़ ही करते हैं ! इस प्रकार एक काल खंड के अनुभवों से हम महरूम रह जाते हैं !! बुजुर्गों के प्रति हमारे व्यवहार को देखकर हमारी संतान भी बुजुर्गों की बात को महत्व नहीं देती !
बहुत अच्छी बात है। वृद्धजन हमारे भविष्य का श्रेष्ठ मार्ग तैयार करने में अहम भूमिका का निर्वाह करते हैं।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद, महोदय
Delete