ad

Tuesday, 31 May 2016

दूसरों पर जय से पहले खुद को जय करें..



       दूसरों पर जय से पहले खुद को जय करें..

       हमारा मन आस-पास के वातावरण के प्रति बहुत ही संवेदनशील होता है बेशक हम त्वरित प्रतिक्रिया करने में संयम दिखाएँ लेकिन घटनाएँ मन-मस्तिष्क पर,स्थायी या अस्थायी कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य छोड़ जाती हैं.
        मनुष्य के मन पर नकारात्मक विचारों का प्रभाव बहुत जल्दी पड़ता है क्योंकि यह मानव सुलभ जन्मजात गुण है. जिसे हम सद्संगति व शिक्षा आदि से उभरने से रोकते हैं. इस प्रक्रिया में, समय-समय पर “ मै “ को एक तरफ रखकर,सास्वत मूल्यों पर आधारित,स्वस्थ आत्मचिंतन परम आवश्यक है, साथियों, सकारात्मक पृष्ठभूमि में अगर देखा जाय तो “मैं “ या “ स्व” का होना बहुत अनिवार्य है लेकिन जब हम आत्म निरीक्षण करें तब इस “स्व” को भी दूर रखना अति आवश्यक है.. तभी हम स्वयं का सही-सही मूल्यांकन कर पाने में सक्षम हो सकते हैं और स्वयं में एक आदर्श व्यक्तित्व के दर्शन कर सकते हैं.
      हमारे मन का सचेतन भाग जो मन का लगभग दसवां भाग है और आस-पास के वातावरण के प्रति हमारी प्रतिक्रिया के लिए जिम्मेदार है, इस भाग को आस-पास घट रही नकारात्मक घटनाओं से हम अलहदा नही रख सकते. यदि हम नकारात्मक प्रतिक्रिया करने से स्वयं को रोकते भी हैं तो वह अर्ध चेतन मन में कहीं न कही घर कर जाती हैं. अत: जिस प्रकार हम समय-समय पर घर की सफाई करते रहते हैं इस प्रकार , आत्मचिंतन द्वारा मन की सफाई भी अनिवार्य है, जिससे उसमे सकारात्मक विचारों के लिए स्थान हर समय रिक्त रहे . इस प्रकार हम स्वयं से अधिक प्रेम कर पाएंगे ..
     यदि इस प्रकार हम आत्मशोधन कर पाने में सक्षम हो पाते हैं तो अद्भुत आत्मविश्वास का उदय होता है और हमारे विचारों और व्यव्हार में सकारात्मक विचार सम्प्रेषण क्षमता व प्रभावोद्पादकता दृष्टिगोचर होती है.. कवि ने सच ही कहा है .....
                  “हमको मन की शक्ति देना मन विजय करें, दूसरों के जय से पहले खुद को जय करें.” 




Monday, 30 May 2016

जब मैं मैच की पहली बॉल पर आउट हुआ !!




यादगार लम्हे .....

जब मैं मैच की पहली बॉल पर आउट हुआ !!

                                   स्थान : आजाद मैदान, उत्तरकाशी, उत्तराखंड
      मैच की कमेंट्री का अंश...
        .... राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, उत्तरकाशी टीम के कप्तान और भरोसेमंद सलामी बल्लेबाज विजय जयाडा, फाइनल मैच की पहली गेंद पर स्ट्राइक लेंगे. उन पर टीम की बल्लेबाजी का पूरा दारोमदार है.गेंदबाज ने दौड़ना शुरु किया ...फ़ाइनल मैच की पहली गेंद और .... विजय जयाडा .... क्लीन बोर्ड ..... !!
         हा हा हा हा हा .. बेटा पुरानी तस्वीरें देख रहा था ..तो अचानक जोर से हँसते हुए बोल पड़ा “ पापा ये किसकी फोटो है ? देखो किल्ला कितनी दूर जा पड़ा है !! “
तस्वीर देख कर मुझे भी जोर से हंसी आई !!
             तब, जब में मैच की पहली ही गेंद पर आउट हुआ था तो इतना मायूस व हताश हो गया था कि उस क्षण सोच रहा था कि धरती फटे और उसी में समां जाऊं !! निराशा और शर्मिंदगी में मुझे सहसा चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा दिख रहा था ! वापस पैवेलियन तक का सफ़र किस तरह पूरा किया, आज भी वो जीवंत दृश्य मन मस्तिष्क पर उभर आता है.
             इस मैच से पहले व बाद में भी अच्छे स्तर तक सलामी बल्लेबाज और विकेटकीपर के रूप में क्रिकेट खेली लेकिन इसी एक मैच में पहली गेंद पर आउट हुआ था और वो भी क्लीन बोर्ड !!!
तब तो मेरे खेल जीवन का ये सबसे दुखद व निराशाजनक क्षण था लेकिन आज इस वाकये को साझा करते हुए भी कौतूहलपूर्ण आनंद की अनुभूति हो रही है ..
               सच ही कहा गया है तस्वीरें बोलती है वो चाहे सुखद अनुभूतियाँ लिए हों या कुछ और ... हालांकि अब ये मैदान, खेल का मैदान सा नहीं दिखता ! वाहन खड़ा करने की जगह मात्र बन कर रह गया है लेकिन इस मैदान से जुड़ी अतीत की कई गुदगुदाती यादें आज भी जेहन में जीवन्त हैं।
               सोचता हूँ हर किसी के जीवन में इस प्रकार के क्षण अलग-अलग रूपों में आते है लेकिन निराशा के इन क्षणों से तुरंत उभरने के लिए स्वयं ही शीघ्रता से हिम्मत जुटाना आवश्यक है।


Sunday, 22 May 2016

सीख ....



सीख ....

         बात उस समय की है जब स्वामी विवेकानंद जयपुर के पास एक छोटी-सी रियासत के मेहमान बने। कुछ दिन वहां रहने के बाद जब स्वामी जी के विदा लेने का समय आया तो रियासत के राजा ने उनके लिए एक स्वागत समारोह का आयोजन किया, जैसे ही स्वामी विवेकाकंद को इस बात की जानकारी मिली कि राजा ने स्वागत समारोह में एक वेश्या को बुलाया है तो वे संशय में पड़ गए। आखिर एक संन्यास के समारोह में वेश्या का क्या काम, यह सोचकर उन्होने समारोह में आने से मना कर दिया,       
         जब यह खबर वेश्या तक पहुंची कि राजा ने जिस महान विभूति के स्वागत समारोह के लिए उसे बुलाया है, उसकी वजह से वह इस कार्यक्रम में भाग लेना ही नहीं चाहते तो वह काफी आहत हुई और उसने सूरदास का एक भजन गाना शुरू कर दिया, वेश्या ने जो भजन गाया, उसके भाव थे कि एक पारस पत्थर तो लोहे के हर टुकड़े को अपने स्पर्श से सोना बनाता है फिर चाहे वह लोहे का टुकड़ा पूजा घर में रखा हो या फिर कसाई के दरवाजे पर पड़ा हो । स्वामी विवेकानंद ने वह भजन सुना और उस जगह पहुंच गए जहां वेश्या भजन गा रही थी। उन्होंने देखा कि वेश्या कि आंखों से झरझर आंसू बह रहे हैं।
         स्वामी विवेकाकंद ने अपने एक संस्मरण में इस बात का उल्लेख किया, उन्होंने अपने संस्मरण में उन्होंने यह भी लिखा है कि इसके पहले जब वे अपने घर से निकलते थे या कहीं से वापस अपने घर जाना होता था तो उन्हें दो मील का चक्कर लगाना पड़ता था। इसका कारण यह था कि उनके घर के रास्ते में वेश्याओं का एक मोहल्ला पड़ता था और संन्यासी होने के कारण वहां से गुजरना वे अपने संन्यास धर्म के विरुद्ध समझते थे। लेकिन उस दिन राजा के स्वागत समारोह में उन्हे एहसास हुआ कि एक असली संन्यासी वही है जो वेश्याओं के मोहल्ले से भी गुजर जाए तो उसे कोई फर्क न पड़े।


Friday, 20 May 2016

कृतज्ञ भाव



             आजकल गर्मियों की छुट्टियां हैं लेकिन विद्यालय में देखभाल के लिए सभी शिक्षको की ड्यूटी क्रम से लगायी जाती है , कल से चार दिन के लिए मेरी ड्यूटी प्रारंभ हुई . विद्यालय गया तो पानी की कमी के कारण पेड़ मुरझाये से दिखे, आजकल विद्यालय में दूसरा कोई काम न था तो सोचा इन पेड़ों को ही कुछ पानी पिला दूँ ....
         दरअसल हम समाज की बुराइयां उकेरने में खूब समय जाया करते  हैं !  खूब रोष व्यक्त करते है !! लेकिन समाज और प्रकृति ने हमें जो कुछ उपयोगी दिया क्या हम उसके प्रति कृतज्ञत हैं ! शायद नहीं !
शायद ही किसी को वृक्षों और हरियाली से कोई शिकायत हो लेकिन क्या इस चिलचिलाती गर्मी में हम उनके प्रति कृतज्ञ भाव प्रदर्शित करते हैं ?


कर्त्तव्य परायणता : लौह पुरुष...



कर्त्तव्य परायणता :  लौह पुरुष...

            सरदार पटेल वास्तव में अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार थे। उनके इस गुण का दर्शन हमें सन् 1909 की इस घटना से लगता है। वे कोर्ट में केस लड़ रहे थे, उस समय उन्हें अपनी पत्नी की मृत्यु का तार मिला। पढ़कर उन्होंने इस प्रकार पत्र को अपनी जेब में रख लिया जैसे कुछ हुआ ही नहीं। दो घंटे तक बहस कर उन्होंने वह केस जीत लिया। 
          बहस पूर्ण हो जाने के बाद न्यायाधीश व अन्य लोगों को जब यह खबर मिली कि सरदार पटेल की पत्नी का निधन हुआ है। तब उन्होंने सरदार से इस बारे में पूछा तो सरदार ने कहा कि उस समय मैं अपना फर्ज निभा रहा था जिसका शुल्क मेरे मुवक्किल ने न्याय के लिए मुझे दिया था। मैं उसके साथ अन्याय कैसे कर सकता था। ऐसी थी उनकी कर्तव्यपरायणता और शेर जैसा कलेजा।
       आज हम बहुत बड़ी- बड़ी बाते तो कर लेते हैं दूसरो पर खूब शब्द प्रहार भी कर लेते हैं लेकिन इस तरह की कर्त्तव्य परायणता विरले लोगों में ही देखने को मिलती है. अत: पहले स्वयं का आत्मावलोकन कर दूसरों में कमियों को देखें तो अधिक उचित होगा हालाँकि दूसरों की कमियों से स्वयं सकारात्मक प्रेरणा लेने की ही परम आवश्यकता है.



परिवर्तन प्रकृति का नियम है



परिवर्तन प्रकृति का नियम है अत: जीवन में स्थिरता न आने दें ...

इस संसार में कुछ भी हमेशा के लिए एक जैसा रहने वाला नहीं है, यहां जो भी है वो परिवर्तनशील है, उसमें बदलाव अवश्य होगा . समय बीता हम बच्चे नहीं रहे ! अब जवान है , समय बीतेगा यह भी ढल जाएगा। शरीर तो प्रकृति से बना है जो परिवर्तनशील है, बस हम किसी काल में अटके नहीं, क्योंकि अच्छा समय हो या बुरा कुछ भी रुकने वाला या ठहरने वाला नहीं है, आप भले कितने भी खूबसूरत क्यों न हो एक न एक दिन चमड़ी ढल ही जाती है, संसार की सबसे खूबसूरत शख्सियत के प्रति प्रकृति यह नहीं सोचती कि इसको बूढ़ा नहीं करती! उसमें बदलाव जरूर होगा! बदलाव को स्वीकार करते जाओ तो कभी दु:ख नहीं होगा! शरीर तो बुड्ढा होगा ही लेकिन आप अपने मन को बुड्ढा न होने दो! शरीर यदि बुड्ढा हो भी गया तो मन से जवान रहो, तो आप बुड्ढे नहीं कहलाओगे। जैसे यदि आपका शरीर जवान हो और मन बुड्ढा हो तो आप जवान नहीं बुड्ढे ही कहलाओगे! आप शरीर का ध्यान रखो तो यह जल्दी बुड्ढा नहीं होगा और मन से खुश रहो
बहता जल अपनी अशुद्धियों को दूर कर गंगा जल बन सकता है जबकि स्थिर जल कीचड में परिवर्तित होने लगता है..! अत:,परिस्थितियाँ कैसी भी हों , जीवन में स्थिरता न आने दें.




बाल कवि का बालपन ........



बाल कवि का बालपन ........

बाल कवि बैरागी जी की पहली कविता.....उन्हीं की जुबानी ...

         यह घटना उस समय की है जब मैं कक्षा चौथी का विद्यार्थी था। उम्र मेरी नौ वर्ष थी।
मेरे कक्षा अध्यापक श्री भैरवलाल चतुर्वेदी थे। उनका स्वभाव तीखा और मनोबल मजबूत था। रंग साँवला, वेश धोती-कुर्ता और स्कूल आते तो ललाट पर कुमकुम का टीका लगा होता था। हल्की नुकीली मूँछें और सफाचट दाढ़ी उनका विशेष श्रृंगार था।
       एक बार भाषण प्रतियोगिता का विषय आया 'व्यायाम'। चौथी कक्षा की तरफ से चतुर्वेदी जी ने मुझे प्रतियोगी बना दिया।
      मैं, पिताजी के साथ उनके चिकारे (छोटी सारंगी) पर गाता रहता था। मुझे 'व्यायाम' की तुक 'नंदराम' से जुड़ती नजर आई। मैं गुनगुनाया 'भाई सभी करो व्यायाम'। इसी तरह की कुछ पंक्तियाँ बनाई और अंत में अपने नाम की छाप वाली पंक्ति जोड़ी - 'कसरत ऐसा अनुपम गुण है/कहता है नंदराम/ भाई करो सभी व्यायाम'। इन पंक्तियों को गा-गाकर याद कर लिया.
      अब प्रतियोगिता का दिन आया। बाद मेरा नाम आया। मैंने अच्छे सुर में अपनी छंदबद्ध कविता 'भाई सभी करो व्यायाम' सुनाना शुरू कर दिया। हर पंक्ति पर सभागार हर्षित होकर तालियाँ बजाता रहा और मैं अपनी ही धुन में गाता रहा।चतुर्वेदी जी ने मुझे उठाकर हवा में उछाला और कंधों तक उठा लिया।
       जब प्रतियोगिता पूरी हुई तो निर्णायकों ने अपना निर्णय अध्यक्ष महोदय को सौंप दिया। कक्षा छठी जीत गई थी। इधर चतुर्वेदी जी साक्षात परशुराम बनकर निर्णायकों के सामने अड़ गए। वे भयंकर क्रोध में थे और उनका एक मत था कि उनकी कक्षा ही विजेता है।
            कुछ शांति होने पर बताया गया कि यह भाषण प्रतियोगिता थी, जबकि चौथी कक्षा के प्रतियोगी नंदराम ने कविता पढ़ी है, भाषण नहीं दिया है। कुछ तनाव कम हुआ। इधर अध्यक्ष जी खड़े हुए और घोषणा की - 'कक्षा चौथी को विशेष प्रतिभा पुरस्कार मैं स्कूल की तरफ से देता हूँ।' सभागार फिर तालियों से गूँज उठा। चतुर्वेदी जी पुलकित थे और रामनाथ जी आँखें पोंछ रहे थे। मेरे लिए यह पहला मौका था जब मुझे माँ सरस्वती का आशीर्वाद मिला और फिर कविता के कारण ही आपका अपना यह नंदराम बालकवि हो गया।
         हर बच्चे में कोई न कोई प्रतिभा अवश्य होती है आवश्यकता है उस प्रतिभा को तलाशने की और निखारने की..इस कार्य में अभिभावक और अध्यापक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं..
गुरु द्वारा ह्रदय से दिया गया आशीर्वाद फलित अवश्य होता है..इस बात में कोई दो राय नही ...


Wednesday, 18 May 2016

तुम साक्षात गीता लग रही हो.....



तुम साक्षात गीता लग रही हो.....

           आज़ादी की लड़ाई के दौरान किसी आदमी ने साबरमती आश्रम में जाकर गांधी जी को पांच चरखे भेंट किये . गांधी जी ने कहा इन पर सूत कातने वाले 5 आदमी भी भेंट करो मुझे . अगले दिन प्रातः गांधी जी ने अपनी बैठक में पाँचों चरखे रख दिये ,उन में से एक चरखा लेकर वह सूत कातने लगे लेकिन बाकी 4 चरखे खाली पड़े रहे कोई नहीं आया.
          दूसरे दिन एक आदमी और प्रकट हुआ, वह भी गांधी जी के साथ सूत कातने लगा, बाकी 3 चरखे फिर खाली रहे ! तीसरे दिन एक आदमी और प्रकट हुआ वह भी सूत कातने में शामिल हो गया, 2 चरखे फिर खाली !!
          अब चौथे दिन वह चरखे भेंट करने वाला सज्जन गांधी जी के पास आया ,उसने गांधी जी से कहा मैं 11  चरखे और भेंट करनेवाला हूँ आपको - गांधी जी ने कहा क्या फायदा इन 5 चरखों का समुचित उपयोग हो जाय वही काफी रहेगा . उस सज्जन ने कहा- बापू आप चिंता न करें आप कल से चरखे के साथ गीता का पाठ करना शुरू करो .
         ऐसा ही हुआ और देखते देखते चरखा कातने वालों की संख्या बढ़ने लगी . गांधी जी ने अपने हाथ से काते गये सूत की पहली साड़ी कस्तूरबा को भेंट की .

जब "बा" उस साड़ी को पहनकर गांधी जी के सामने आई तो गांधी जी ने कहा - तुम इस साड़ी में साक्षात गीता लग रही हो, मैं तुमको प्रणाम करता हूँ.

Tuesday, 17 May 2016

सादा जीवन उच्च विचार : श्री लाल बहादुर शास्त्री







सादा जीवन उच्च विचार : श्री लाल बहादुर शास्त्री

        एक बार हमारे देश के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को विदेश यात्रा पर जाना था। उनके पत्नी व पुत्र ने सोचा कि शास्त्री जी के लिए नया कोट बनवा दिया जाए क्योंकि उनका कोट काफी पुराना हो चुका था।
       बाजार से एक बढ़िया धारी वाला काले कोट का कपड़ा मँगवाया गया और दर्जी को बुलाकर शास्त्रीजी के सामने खड़ा कर‍ दिया। दर्जी ने शास्त्री जी का नाप लेकर अपनी डायरी में नोट कर लिया और कोट के कपड़े का लिफाफा लेकर जाने लगा तो शास्त्री जी ने उससे धीरे से कुछ कहा। कुछ दिनों पश्चात जब टेलर कोट का लिफाफा लेकर आया तो उसमें से कोट निकाला गया। पर यह क्या? उसमें तो वही पुराना कोट निकला जो शास्त्रीजी पहनते थे। उनकी पत्नी व पुत्र यह देखकर दंग रह गए पर वह दर्जी से क्या पूछते?
        दर्जी के जाने के बाद उनके पुत्र ने पूछा - 'बाबूजी यह क्या माजरा है? तो वह मुस्कुराते हुए बोले कि अभी तो मेरा पुराना कोट ही पहनने लायक है। इसलिए वह कपड़ा मैंने वापस करवा कर उन पैसों को जरूरतमंद विद्यार्थियों में बँटवा दिया है। सादा जीवन के साथ ऐसे उच्च विचार थे हमारे शास्त्री जी के।

साथियों , कितना अच्छा होता !!! यदि आज समाज का हर वर्ग सादगी की यह मिशाल कायम कर पाता , अमूमन हम नेताओं को ही भ्रष्ट आचरण के लिए कोसते रहते हैं.. लेकिन समाज में हर व्यक्ति यदि इस प्रकार की सादगी भरे जीवन को आदर्श मान ले तो नेताओं को भी मजबूर होकर यह सब करना पड़ेगा . क्योंकि नेता आसमान से नही आते हम सबके बीच से ही बनते हैं !!!!!!
राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण में आम व्यक्ति सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है ......


पिता..



          शास्त्रों में भी माता, पिता गुरु देवता के क्रम में माता को सर्वोच्च स्थान दिया गया है. व्यव्हार में भी माता सर्वत्र आदरणीय व पूजनीय है..मेरे विचार से भी माँ त्याग और ममता की अद्भुत प्रतिमूर्ति है हालाँकि बदलते परिवेश में माँ ने और अधिक जिम्मेदारियां संभाल ली हैं ...
            लेकिन बदलते भौतिक परीवेश में भी पिता का स्वरुप आज भी कम विराट नही ..वह एक वट वृक्ष के समान है जो सर्दी-गर्मी , आंधी- तूफ़ान जैसी विपरीत परिस्थितियों में भी अडिग खड़ा रहकर छाँव की व्यवस्था करता ही दिखाई पड़ता है .लेकिन पिता के मुंह से उफ्फ तक नही निकलता , परिवार में और लोग भी चिंता ग्रस्त न हो जाएँ इसलिए  किसी को अपनी परेशानी बताना ही उचित समझता है..चुपचाप अपने धर्म का निर्वाह करता रहता है ...

Saturday, 14 May 2016

छोटी मगर दिल खुश करती बातें.....









छोटी मगर दिल खुश करती बातें.....

     कल कक्षा में फसलों के त्योहार प्रकरण के अंतर्गत “मकर संक्रांति” पर विस्तार से चर्चा की जिसमें बताया कि उत्तर भारत में प्राय: “खिचड़ी” नाम से प्रसिद्ध तथा विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग नाम से जाने जाने वाले इस त्योहार को किस प्रकार मनाया जाता है
       पाठ के अंत में बंगाली खिचड़ी बनाने की विधि लिखी गयी है, तो मैंने चलते-चलते बच्चों से अपने-अपने घर में माँ से बंगाली खिचड़ी बनवाने को भी कह दिया ..
     आश्चर्य हुआ !! आज ज्योति मेरे लिए हॉट केस में “बंगाली खिचड़ी” बनाकर ले आई !! पूछने पर पता लगा कि बनाने की विधि में लिखी गयी सामग्री वह स्वयं ही दुकान से लायी थी.
     बेशक ! पांचवीं कक्षा की छात्रा, ज्योति, अभी कक्षा के मेधावी बच्चों में शामिल नही ! लेकिन पूरी कक्षा में ज्योति ने ही पढाये गए पाठ को घर पर व्यावहारिक रूप में परिणत करने में रूचि ली. इससे ज्योति द्वारा कक्षा में प्रकरण पर उचित ध्यान देना तो परिलक्षित हुआ ही साथ ही अध्ययन में उसकी बढती रूचि अनुभव कर संतोष मिश्रित प्रसन्नता भी हुई.
    सोचता हूँ प्रकरण में बच्चों द्वारा किसी भी रूप में सहभागिता, सीखने की प्रक्रिया को आसान करती है. शिक्षा का व्यावहारिक स्वरुप ही प्रकरण के माध्यम से वांछित स्थायी प्रभाव डालने के साथ-साथ लक्षित उद्देश्य को आसानी से प्राप्त करने में कारगर हो सकता है.
     संभव है ! आप सोचें ! इसमें कौन सी बड़ी बात है !! लेकिन मन प्रसन्न हुआ इसलिए सोचा आपके साथ भी साझा करूँ..
 
 

सादगी की मिशाल : शास्त्री जी




सादगी की मिशाल : शास्त्री जी

शास्त्री जी खुद कष्ट उठाकर दूसरों को सुखी देखने में आनंद प्राप्त होता था ..
एक बार की घटना है उस समय शास्त्री जी रेल मंत्री थे और रेल से मुंबई जा रहे थे.उनके लिए प्रथम श्रेणी का डिब्बा लगा था..
गाड़ी चलने लगी तो शास्त्री जी बोले, " बाहर तो बहुत गर्मी है लेकिन इस डिब्बे में ठंडक है!!! "
उनके पी.ए. कैलाश बाबू बोले, " जी, इसमें कूलर लग गया है, इसलिए ठंडक है"
शास्त्री जी ने उनको पैनी निगाहों से देखा और बोले," कूलर लग गया है ?? बिना मुझे बताये ?? आप लोग कुछ काम करने से पहले मुझे कुछ पूछते क्यों नही ?? क्या और सारे लोग जो गाड़ी में चल रहे हैं. क्या उनको गर्मी नहीं लगती होगी ??"
शास्त्री जी ने कहा , " कायदा तो ये है की मुझे भी थर्ड क्लास डिब्बे में चलना चाहिए, लेकिन उतना तो नही हो सकता लेकिन जितना हो सकता है उतना तो करना ही चाहिए ??
उन्होंने कहा," आगे जहाँ गाड़ी रुके, सबसे पहले ये कूलर निकलवाइए"
मथुरा स्टेशन पर गाड़ी रुकी, वहीँ कूलर उतारने के बाद ही गाड़ी आगे बढ़ी,
आज भी फर्स्ट क्लास के डिब्बे में जहाँ वह कूलर लगा था, लकड़ी जड़ी हुई है'
काश , आज भी ऐसी नैतिकता के उदाहरण पेश किये जाते !!! तो व्यवस्था स्वमेव ही परिवर्तित हो जाती, क्योंकि भ्रष्टाचार की गंगा ऊपर से ही नीचे की तरफ बहती है
 
 

Parents





बस यूँ ही बैठे ठाले - ठाले !!


बस यूँ ही बैठे ठाले - ठाले !!

        समय के साथ-साथ हमारा विचार पाचन तंत्र भी बदले समय में बहुत "दुरुस्त" हो गया है !! वह हर तरह के विचार व घटनाओं को बहुत सहजता से हजम करने लगा है !
       मिशाल के तौर पर .... कुछ समय पूर्व ऐसा वातावरण निर्मित कर दिया गया था कि यदि चौराहे पर सांडों की लड़ाई में कुछ नुकसान हो जाता तो व्यवस्था का जिम्मेदार ठहराकर प्रधानमंत्री से इस्तीफे की माँग की पूरी संभावना बनती थी ! किसी " हाई प्रोफाइल " आरोपित व्यक्ति को न्यायालय राहत देता था तो सत्ताधारी दल पर ही निशाना साधकर, प्रधानमंत्री को विभिन्न " उपाधियों " से विभूषित कर इस्तीफा माँगा जाता था !! इस नेक कार्य में आवश्यक " जनमत " भी साथ होता था !
       बीते समय की ऐसी कई घटनाओं से आप विज्ञ हैं, सभी का जिक्र कर जलालत की स्थिति उत्पन्न नहीं करना चाहता। बस सार-संक्षेप में इतना ही कहूंगा कि हर छोटी-बड़ी घटना पर इस्तीफे की मांग व चारों तरफ "राष्ट्रवाद" हिलौरे लेने लगता था !! अर्थात देश के बाहर भीतर कुछ भी हो ...प्रधानमंत्री का इस्तीफा चाहिए !!!
      लेकिन आज ......... !!! आज हम उसी तरह की घटनाओं पर मौन साधकर स्वीकृति देते हैं या पहले से हटकर अलग तरह से अपनी "दार्शनिक राय" रखते हैं !! जो " विवेक " से " परिपूर्ण " होती हैं !!! मेरे कहने का आशय ये नहीं कि सम्बन्धित घटनाओं पर पुनः उसी तरह का आचरण दोहराया जाना चाहिए।
सोचता हूँ हमारी मन स्थिति को जो अच्छा लगता है शायद उसी को हम सत्य व उचित मान लेते हैं !! राजनीतिक विरोधियों के अच्छे कार्यों की प्रशंसा करना या सहमति जताना हमारे लिए "महा पाप" की श्रेणी में आने लगा है !! ये स्थिति सामाजिक ध्रुवीकरण उत्पन्न करती है जो राष्ट्रीय अखंडता के लिए गंभीर खतरा है !! डॅा. बाबा साहब अम्बेडकर ने इस स्थिति को पहले ही भाँपकर स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद इस विषय पर संशय व्यक्त किया था। हमें सही गलत से कोई सरोकार नहीं !!! धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आधारित राजनीति, भावनात्मक धरातल पर लोकप्रियता हासिल करने का आसान व सुग्राह्य साधन बन गया है !!!
       कुल मिलाकर पेशेवर राजनीतिज्ञ न होने पर भी हमारा नजरिया राजनीतिक " दलीय भंवर " में उलझकर स्वकेन्द्रित व " पेशेवर " राजनेताओं सदृश हो गया है फलस्वरूप हम एक ही तथ्य या घटना को स्वसुविधानुसार अलग-अलग तरह से परिभाषित करने में निपुण हो चुके हैं !!
      क्या इस तरह की मानसिकता स्वस्थ लोकतंत्र के फलने- फूलने में सहायक है ? क्या हम अपना नैतिक बल खोते जा रहे हैं ? या हम पूर्वाग्रहों के बंधुआ बन कर रह गए हैं !!
      क्या हमें केवल विरोध तक ही सीमित न रहकर तथ्यों व घटनाओं का बहुकोणीय, स्वतंत्र व निष्पक्ष मूल्यांकन नहीं करना चाहिए ?

धर्म.....



धर्म.....

            धर्म (या मज़हब) किसी एक या अधिक परलौकिक शक्ति में विश्वास और इसके साथ-साथ उसके साथ जुड़ी रिति, रिवाज़, परम्परा, पूजा-पद्धति और दर्शन का समूह है । इस संबंध में प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन का अभिमत है कि आज धर्म के जिस रूप को प्रचारित एवं व्याख्यायित किया जा रहा है उससे बचने की जरूरत है। वास्तव में धर्म संप्रदाय नहीं है। ज़िंदगी में हमें जो धारण करना चाहिए, वही धर्म है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह तत्व है जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। यह मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास की प्रभावना है, सार्वभौम चेतना का सत्संकल्प है।
           मध्ययुग में विकसित धर्म एवं दर्शन के परम्परागत स्वरूप एवं धारणाओं के प्रति आज के व्यक्ति की आस्था कम होती जा रही है। मध्ययुगीन धर्म एवं दर्शन के प्रमुख प्रतिमान थे- स्वर्ग की कल्पना, सृष्टि एवं जीवों के कर्ता रूप में ईश्वर की कल्पना, वर्तमान जीवन की निरर्थकता का बोध, अपने देश एवं काल की माया एवं प्रपंचों से परिपूर्ण अवधारणा। उस युग में व्यक्ति का ध्यान अपने श्रेष्ठ आचरण, श्रम एवं पुरुषार्थ द्वारा अपने वर्तमान जीवन की समस्याओं का समाधान करने की ओर कम था, अपने आराध्य की स्तुति एवं जय गान करने में अधिक था।
        धर्म के व्याख्याताओं ने संसार के प्रत्येक क्रियाकलाप को ईश्वर की इच्छा माना तथा मनुष्य को ईश्वर के हाथों की कठपुतली के रूप में स्वीकार किया।

       आज के युग ने यह चेतना प्रदान की है कि विकास का रास्ता हमें स्वयं बनाना है। किसी समाज या देश की समस्याओं का समाधान कर्म-कौशल, व्यवस्था-परिवर्तन, वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास, परिश्रम तथा निष्ठा से सम्भव है। आज के मनुष्य की रुचि अपने वर्तमान जीवन को सँवारने में अधिक है। उसका ध्यान 'भविष्योन्मुखी' न होकर वर्तमान में है। वह दिव्यताओं को अपनी ही धरती पर उतार लाने के प्रयास में लगा हुआ है। वह पृथ्वी को ही स्वर्ग बना देने के लिए बेताब है।
..........साभार : मुक्त ज्ञानकोष

दया,करुणा और साहस की प्रतिमूर्ति : सुभाषचन्द्र बोस :



 दया,करुणा और साहस की प्रतिमूर्ति : सुभाषचन्द्र बोस :

         सुभाषचन्द्र बोस के घर के सामने एक बूढ़ी भिखारिन रहती थी। वे देखते थे कि वह हमेशा भीख मांगती थी और दर्द साफ दिखाई देता था। उसकी ऐसी अवस्था देखकर उसका दिल दहल जाता था। भिखारिन से मेरी हालत कितनी अच्‍छी है यह सोचकर वे स्वयं शर्म महसूस करते थे।
      उन्हें यह देखकर बहुत कष्ट होता था कि उसे दो समय की रोटी भी नसीब नहीं होती। बरसात, तूफान, कड़ी धूप और ठंड से वह अपनी रक्षा नहीं कर पाती।
      उनके मन में विचार आया कि यदि हमारे समाज में एक भी व्यक्ति ऐसा है कि वह अपनी आवश्यकता को पूरा नहीं सकता तो मुझे सुखी जीवन जीने का क्या अधिकार है और उन्होंने ठान लिया कि केवल सोचने से कुछ नहीं होगा, कोई ठोस कदम उठाना ही होगा।
      सुभाष के घर से उसके कॉलेज की दूरी 3 किलोमीटर थी। जो पैसे उन्हें खर्च के लिए मिलते थे उनमें उनका बस का किराया भी शामिल था। उस बुढ़िया की मदद हो सके, इसीलिए वह पैदल कॉलेज जाने लगे और किराए के बचे हुए पैसे वह बुढ़िया को देने लगे।
        सुभाष जब विद्यालय जाया करते थे तो मां उन्हें खाने के लिए भोजन दिया करती थी। विद्यालय के पास ही एक बूढ़ी महिला रहती थी। वह इतनी असहाय थी कि अपने लिए भोजन तक नहीं बना सकती थी।
       प्रतिदिन सुभाष अपने भोजन में से आधा भोजन उस बुढ़िया को दिया करते थे। एक दिन सुभाष ने देखा कि वह बुढ़िया बहुत बीमार है। सुभाष ने 10 दिन तक उस बुढ़िया की मन से सेवा की और वह बुढ़िया ठीक हो गई।
       काश !!! आज समाज में सभी इसी दृष्टिकोण को अंगीकृत कर पाते ..!!! तो अपना देश भारत सोने की चिड़िया और जगत गुरु कहलाने का गौरव पुन: प्राप्त कर सकता !


Tuesday, 3 May 2016

ऐसे थे शास्त्री जी .



      ऐसे थे शास्त्री जी ....
       शास्त्री जी ने अपने पद या सरकारी संसाधनों का कभी दुरुपयोग नहीं किया। शास्त्री जी जब 1964 में प्रधानमंत्री बने, तब उन्हें सरकारी आवास के साथ ही इंपाला शेवरले कार मिली, जिसका उपयोग वह न के बराबर ही किया करते थे। वह गाड़ी किसी राजकीय अतिथि के आने पर ही निकाली जाती थी.एक बार उनके पुत्र सुनील शास्त्री किसी निजी काम के लिए इंपाला कार ले गए और वापस लाकर चुपचाप खड़ी कर दी। 

            शास्त्रीजी को जब पता चला तो उन्होंने ड्राइवर को बुलाकर पूछा कि कल कितने किलोमीटर गाड़ी चलाई गई और जब ड्राइवर ने बताया कि चौदह किलोमीटर तो उन्होंने निर्देश दिया, 'लिख दो, चौदह किलोमीटर प्राइवेट यूज।' शास्त्रीजी यहीं नहीं रुके बल्कि उन्होंने अपनी पत्नी को बुलाकर निर्देश दिया कि उनके निजी सचिव से कह कर वह सात पैसे प्रति किलोमीटर की दर से सरकारी कोष में पैसे जमा करवा दें।
             जय जवान, जय किसान का नारा देने वाले,शास्त्री जी को आज भी सभी लोग बहुत श्रद्धा व सम्मान से याद करते हैं लेकिन केवल याद करने मात्र से राष्ट्र हित संभव नही ..केवल राज नेताओं पर ही दोष मढ कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर देना समाज हित और देश हित में कतई नही .
एक नारा याद आता है... " हम बदलेंगे.... जग बदलेगा, हम सुधरेंगे ...जग सुधरेगा "
               हर स्तर पर व्यक्ति को शास्त्री जी के आदर्शों पर चलने की, सख्त आवश्यकता समय की माँग है .आज भी शास्त्री जी एक प्रासंगिक व्यक्तित्व हैं ......
            
काश...!! आज समाज का हर व्यक्ति उनसे कुछ आदर्श ग्रहण कर पाता और उन्हें मूर्त रूप में परिणित कर पाता....!!!


ज्ञान सागर



स्वामी विवेकानंद के अनुसार.........
                  " एक शिक्षक विद्यार्थी का सही मार्गदर्शक तब तक रह सकता है, जब तक वह पढ़ना जारी रखता है "
           स्वामी शंकराचार्य समुद्र किनारे बैठकर अपने शिष्य से वार्तालाप कर रहे थे कि एक शिष्य ने चाटुकारिता भरे शब्दों में कहा 'गुरुवर! आपने इतना अधिक ज्ञान कैसे अर्जित किया, यही सोचकर मुझे आश्चर्य होता है। शायद और किसी के पास इतना अधिक ज्ञान का भंडार न होगा।
          शंकराचार्य बोले - मेरे पास ज्ञान का भंडार है, यह तुम्हें किसने बताया मुझे तो ज्ञान में और वृद्धि करना है। फिर उन्होंने अपने हाथ की लकड़ी पानी में डुबोई और उसे इस शिष्य को दिखाते हुए बोले 'अभी-अभी मैंने इस अथाह सागर में यह लकड़ी डुबोई, किंतु उसने केवल कुछ बूँदें ग्रहण की।
        बस यही बात ज्ञान के बारे में है, ज्ञान सागर कभी भरता नहीं, उसे कुछ-कुछ ग्रहण करना ही होता है। मुझसे भी बढ़कर विद्वान हैं, मुझे अभी भी बहुत कुछ ग्रहण करना है।