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Saturday 14 May 2016

बस यूँ ही बैठे ठाले - ठाले !!


बस यूँ ही बैठे ठाले - ठाले !!

        समय के साथ-साथ हमारा विचार पाचन तंत्र भी बदले समय में बहुत "दुरुस्त" हो गया है !! वह हर तरह के विचार व घटनाओं को बहुत सहजता से हजम करने लगा है !
       मिशाल के तौर पर .... कुछ समय पूर्व ऐसा वातावरण निर्मित कर दिया गया था कि यदि चौराहे पर सांडों की लड़ाई में कुछ नुकसान हो जाता तो व्यवस्था का जिम्मेदार ठहराकर प्रधानमंत्री से इस्तीफे की माँग की पूरी संभावना बनती थी ! किसी " हाई प्रोफाइल " आरोपित व्यक्ति को न्यायालय राहत देता था तो सत्ताधारी दल पर ही निशाना साधकर, प्रधानमंत्री को विभिन्न " उपाधियों " से विभूषित कर इस्तीफा माँगा जाता था !! इस नेक कार्य में आवश्यक " जनमत " भी साथ होता था !
       बीते समय की ऐसी कई घटनाओं से आप विज्ञ हैं, सभी का जिक्र कर जलालत की स्थिति उत्पन्न नहीं करना चाहता। बस सार-संक्षेप में इतना ही कहूंगा कि हर छोटी-बड़ी घटना पर इस्तीफे की मांग व चारों तरफ "राष्ट्रवाद" हिलौरे लेने लगता था !! अर्थात देश के बाहर भीतर कुछ भी हो ...प्रधानमंत्री का इस्तीफा चाहिए !!!
      लेकिन आज ......... !!! आज हम उसी तरह की घटनाओं पर मौन साधकर स्वीकृति देते हैं या पहले से हटकर अलग तरह से अपनी "दार्शनिक राय" रखते हैं !! जो " विवेक " से " परिपूर्ण " होती हैं !!! मेरे कहने का आशय ये नहीं कि सम्बन्धित घटनाओं पर पुनः उसी तरह का आचरण दोहराया जाना चाहिए।
सोचता हूँ हमारी मन स्थिति को जो अच्छा लगता है शायद उसी को हम सत्य व उचित मान लेते हैं !! राजनीतिक विरोधियों के अच्छे कार्यों की प्रशंसा करना या सहमति जताना हमारे लिए "महा पाप" की श्रेणी में आने लगा है !! ये स्थिति सामाजिक ध्रुवीकरण उत्पन्न करती है जो राष्ट्रीय अखंडता के लिए गंभीर खतरा है !! डॅा. बाबा साहब अम्बेडकर ने इस स्थिति को पहले ही भाँपकर स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद इस विषय पर संशय व्यक्त किया था। हमें सही गलत से कोई सरोकार नहीं !!! धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आधारित राजनीति, भावनात्मक धरातल पर लोकप्रियता हासिल करने का आसान व सुग्राह्य साधन बन गया है !!!
       कुल मिलाकर पेशेवर राजनीतिज्ञ न होने पर भी हमारा नजरिया राजनीतिक " दलीय भंवर " में उलझकर स्वकेन्द्रित व " पेशेवर " राजनेताओं सदृश हो गया है फलस्वरूप हम एक ही तथ्य या घटना को स्वसुविधानुसार अलग-अलग तरह से परिभाषित करने में निपुण हो चुके हैं !!
      क्या इस तरह की मानसिकता स्वस्थ लोकतंत्र के फलने- फूलने में सहायक है ? क्या हम अपना नैतिक बल खोते जा रहे हैं ? या हम पूर्वाग्रहों के बंधुआ बन कर रह गए हैं !!
      क्या हमें केवल विरोध तक ही सीमित न रहकर तथ्यों व घटनाओं का बहुकोणीय, स्वतंत्र व निष्पक्ष मूल्यांकन नहीं करना चाहिए ?

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