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Sunday 22 May 2016

सीख ....



सीख ....

         बात उस समय की है जब स्वामी विवेकानंद जयपुर के पास एक छोटी-सी रियासत के मेहमान बने। कुछ दिन वहां रहने के बाद जब स्वामी जी के विदा लेने का समय आया तो रियासत के राजा ने उनके लिए एक स्वागत समारोह का आयोजन किया, जैसे ही स्वामी विवेकाकंद को इस बात की जानकारी मिली कि राजा ने स्वागत समारोह में एक वेश्या को बुलाया है तो वे संशय में पड़ गए। आखिर एक संन्यास के समारोह में वेश्या का क्या काम, यह सोचकर उन्होने समारोह में आने से मना कर दिया,       
         जब यह खबर वेश्या तक पहुंची कि राजा ने जिस महान विभूति के स्वागत समारोह के लिए उसे बुलाया है, उसकी वजह से वह इस कार्यक्रम में भाग लेना ही नहीं चाहते तो वह काफी आहत हुई और उसने सूरदास का एक भजन गाना शुरू कर दिया, वेश्या ने जो भजन गाया, उसके भाव थे कि एक पारस पत्थर तो लोहे के हर टुकड़े को अपने स्पर्श से सोना बनाता है फिर चाहे वह लोहे का टुकड़ा पूजा घर में रखा हो या फिर कसाई के दरवाजे पर पड़ा हो । स्वामी विवेकानंद ने वह भजन सुना और उस जगह पहुंच गए जहां वेश्या भजन गा रही थी। उन्होंने देखा कि वेश्या कि आंखों से झरझर आंसू बह रहे हैं।
         स्वामी विवेकाकंद ने अपने एक संस्मरण में इस बात का उल्लेख किया, उन्होंने अपने संस्मरण में उन्होंने यह भी लिखा है कि इसके पहले जब वे अपने घर से निकलते थे या कहीं से वापस अपने घर जाना होता था तो उन्हें दो मील का चक्कर लगाना पड़ता था। इसका कारण यह था कि उनके घर के रास्ते में वेश्याओं का एक मोहल्ला पड़ता था और संन्यासी होने के कारण वहां से गुजरना वे अपने संन्यास धर्म के विरुद्ध समझते थे। लेकिन उस दिन राजा के स्वागत समारोह में उन्हे एहसास हुआ कि एक असली संन्यासी वही है जो वेश्याओं के मोहल्ले से भी गुजर जाए तो उसे कोई फर्क न पड़े।


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